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________________ २५८ ] भागूणं पल्य के संख्य भाग हीन, असुभसुभाणणुभागं अणंतगुणहाणिवुढीहिं - अनन्तगुण हानि और वृद्धि वाला । - - - करणं करण, अहापवत्तं - यथाप्रवृत्त, अपुव्वकरणं - अपूर्वकरण, अनियट्टिकरणंअनिवृत्तिकरण, अंतोमुहुत्तिया अन्तर्मुहूर्त प्रमाण वाले, उवसंतद्धं उपशांत अद्धा को, च प्राप्त करता है, कमा और, लह अनुक्रम से। [ कर्मप्रकृति अशुभ-शुभ अनुभाग को, - - - गाथार्थ सर्वोपशमना मोहनीय कर्म की ही होती है। उसकी उपशमना के योग्य पंचेन्द्रिय संज्ञी, पर्याप्तक, लब्धित्रिक से युक्त, करण से पूर्व भी अनंतगुणी विशुद्धि से विशुद्ध होता हुआ ग्रंथिवर्ती भव्य जीव की विशुद्धि का अतिक्रमण करके अन्यतर साकरोपयोग और योग में वर्तमान और विशुद्ध श्याओं में प्रवर्तमान, आयुकर्मों को छोड़कर शेष सात कर्मों की स्थितिसत्ता को अन्तः कोडाकोडी सागर प्रमाण करके अशुभ और शुभ प्रकृतियों के अनुभाग को क्रमशः द्विस्थानक और चतुःस्थानक करता हुआ ध्रुवबंधी प्रकृतियों को बांधता हुआ, आयु के सिवाय स्वभव के योग्य शुभ प्रकृतियों को बांधा हुआ योगानुसार उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य प्रदेश बंध करता हुआ, एक स्थितिबंध काल पूर्ण होने पर पल्य के संख्यात भागहीन नवीन बंध करता हुआ, अशुभ और शुभ प्रकृतियों के अनुभाग को अनन्तगुणवृद्धि और हानि वाला करता हुआ, अन्तर्मुहूर्तकाल तक अनुक्रम से यथाप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण को करता हुआ उपशांत-अद्धा को प्राप्त होता है । विशेषार्थ – 'सव्ववसमणा' इत्यादि अर्थात् यह सर्वोपशमना केवल मोहनीयकर्म की ही होती है किन्तु शेष कर्मों की तो देशोपशमना ही होती है । मोहनीयकर्म की सर्वोपशमना रूप क्रिया के योग्य पंचेन्द्रिय संज्ञी और सभी पर्याप्तियों से पर्याप्त जीव होता है। ऐसा लब्धित्रय से युक्त जीव अर्थात् पंचेन्द्रियत्व लब्धि, संज्ञित्व लब्धि और पर्याप्तत्व लब्धि से युक्त अथवा उपशमलब्धि, उपदेश श्रवणलब्धि और तीन करण की कारणभूत प्रकष्ट योगलब्धि से संयुक्त जीव उपशान्ताद्धा को प्राप्त होता है तथा करणकाल से पहले भी ऐसा जीव अन्तर्मुहूर्तकाल तक प्रति समय अनन्तगुणी वृद्धिवाली विशुद्धि से विशुद्ध होता हुआ, निर्मल चित्त संतति वाला ग्रंथिक सत्व वाले अभव्य सिद्धिक जीवों की जो विशुद्धि है, उसको भी उल्लंघन कर आगे की विशुद्धि में वर्तमान अर्थात् अभव्य जीवों की विशुद्धि से अनन्तगुणी विशुद्धि वाला' तथा मति १. अभव्य को प्रथम विशुद्धि तथा यथाप्रवृत्तकरण होता है, परन्तु वह किसी भी मोहनीय की सर्वोपशमना नहीं कर सकता है और यहाँ सर्वोपशमना के अधिकारी जो जीव प्रथम विशुद्धि में विद्यमान है, उसकी विशुद्धि सर्वथा सर्वोपशमना नहीं करने वाले अभव्य जीवों के यथाप्रवृत्तकरणवर्ती विशुद्धि से अनन्तगुणी विशुद्धि हो सकती है। यह विशुद्धि भी सर्वोपशमना करने वाले ऐसे विशुद्धि में वर्तमान जीवों की समझना चाहिये ।
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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