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उदीरणाकरण ]
. [ २०५ प्रश्न – मनुष्यगति की भी पन्द्रह कोडाकोडी सागरोपम बंध से उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त होती है, इसी प्रकार मनुष्यानुपूर्वी की भी। किन्तु दोनों में एक की भी बीस कोडाकोडी सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त नहीं होती है। तब दोनों ही संक्रमोत्कृष्ट हैं और संक्रामोत्कृष्टपना समान होने पर भी मनुष्यगति के समान मनुष्यानुपूर्वी की भी तीन आवलि से कम उत्कृष्ट स्थिति उदीरणा के योग्य क्यों नहीं होती है ?
उत्तर – यह कहना योग्य नहीं है। क्योंकि मनुष्यानुपूर्वी अनुदय-संक्रमोत्कृष्ट है जैसा कि कहा है -
मणुयाणुपुव्वि मीसग आहारग देवजुगल विगलाणि।
सुहुमात्ति तिगं तित्थं अणुदयसंकमण उक्कोसा॥ अर्थात् मनुष्यानुपूर्वी, मिश्रमोहनीय, आहारकयुगल, देवयुगल, विकलत्रिक, सूक्ष्मत्रिक और तीर्थंकर नाम, इतनी प्रकृतियां अनुदय संक्रमोत्कृष्ट होती हैं।
अनुदय-संक्रमोत्कृष्ट प्रकृतियों की जघन्य से भी अन्तर्मुहूर्त से कम ही उत्कृष्ट स्थिति उदीरणा के योग्य होती है। परंतु मनुष्यगति तो उदय-संक्रमोत्कृष्ट है। कहा भी है -
मणुगई सायं सम्मं थिर हासाईच्छ वेय सुभखगई।
रिसभचउरंसगाई, पणुच्च उदसंकमुक्कोसा॥ - अर्थात् मनुष्यगति, सातावेदनीय, सम्यक्त्व, स्थिरषट्क, हास्यादिषट्क, वेदत्रिक, शुभ विहायोगति, वज्रऋषभनाराच आदि पांच संहनन, समचतुरस्र आदि पांव संस्थान और उच्चगोत्र ये प्रकृतियां उदय संक्रमोत्कृष्ट होती हैं।
इसलिये मनुष्यगति की तीन आवलिका से हीन ही उत्कृष्ट स्थिति उदीरणा के योग्य होती है। इसी प्रकार आतप आदि की भी अन्तर्मुहूर्त न्यून उत्कृष्ट स्थिति उदीरणा योग्य जानना चाहिये।
प्रश्न - अनुदय-संक्रमोत्कृष्ट स्थिति वाली प्रकृतियों की अन्तर्मुहूर्तहीन उत्कृष्ट स्थिति उदीरणा के योग्य भले ही हो, किन्तु आतप नाम तो बंधोत्कृष्ट है। इसलिये उसकी बंधावलिका और उदयावलिका इन दो से रहित ही उत्कृष्ट स्थिति उदीरणा के योग्य प्राप्त होती है। फिर उसे अन्तर्मुहूर्त से कम कैसे कहते हैं ?
१. पंचसंग्रह तृतीय द्वार गाथा ६४ २. पंचसंग्रह तृतीय द्वार गाथा ६३