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________________ [ कर्मप्रकृति विशेषार्थ देवगति, देवानुपूर्वी, मनुष्यानुपूर्वी, आतप, विकलत्रिक, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और सूक्ष्मत्रिक (सूक्ष्म साधारण, अपर्याप्त ) इन प्रकृतियों के अपने उदय में वर्तमान जीव अन्तर्मुहूर्त भग्न अर्थात् उत्कृष्ट स्थिति के बंध योग्य अध्यवसाय के अनंतर अन्तर्मुहूर्त काल तक परिभ्रष्ट होते हुये, उतने से न्यून अर्थात् अन्तर्मुहूर्तकाल कम उन देवगति आदि प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति को उदीरित करते हैं । इसका तात्पर्य यह है कि कोई जीव उस प्रकार के परिणाम विशेष होने से नरकगति की बीस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति को बांधकर पुनः शुभ परिणाम विशेष के होने से देवगति की दस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति को बांधना प्रारंभ करता है, तब उस बध्यमान देवगति की स्थिति में आवलिका के ऊपर बंधावलिका से हीन आवलि से ऊपर की सभी नरकगति की स्थिति को संक्रान्त करता है तब देवगति की भी स्थिति बीस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण आवलि मात्र से हीन प्राप्त होती है । देवगति को बांधता हुआ जीव जघन्य से भी अन्तर्मुहूर्त काल तक बांधता है और बांधने के पश्चात् काल करके अनंतर समय में देव हो गया तब देवपने का अनुभव करते हुए उसके देवगति की अन्तर्मुहूर्त कम बीस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति उदीरणा के योग्य होती है । २०४ ] - प्रश्न • ऊपर कही गई युक्ति के अनुसार तो आवलिका अधिक अन्तर्मुहूर्त से कम स्थिति उदीरणा के योग्य प्राप्त होती है । तब अन्तर्मुहूर्त से कम कैसे कहा ? उत्तर यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि आवलिका के मिलाने पर उस काल का प्रमाण अन्तर्मुहूर्त ही रहता है । केवल इसे कुछ बड़ा अन्तर्मुहूर्त जानना चाहिये । इसी प्रकार देवानुपूर्वी की उत्कृष्ट स्थिति उदीरणा का स्वामित्व कहना चाहिये । अब मनुष्यानुपूर्वी की उत्कृष्ट स्थिति- उदीरणा का स्वामित्व बतलाते हैं । जब किसी जीव ने नरकापूर्वी की बीस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति को बांध कर पुनः शुभ परिणाम विशेष से मनुष्यानुपूर्वी की उत्कृष्ट स्थिति पन्द्रह कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण बांधना प्रारंभ किया तब बध्यमान उस मनुष्यानुपूर्वी की स्थिति में आवलि के ऊपर बंधावलिका से हीन आवलि से उपरितन सभी नरकानुपूर्वी की स्थिति को संक्रान्त करता है, तब मनुष्यानुपूर्वी की आवलि मात्र से हीन बीस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण स्थिति हो जाती है। मनुष्यानुपूर्वी को बांधता हुआ जीव जघन्य से भी अन्तर्मुहूर्त काल तक बांधता है । वह अन्तर्मुहूर्त आवलि से न्यून बीस कोडाकोडी सागरोपम में से कम हो जाता है और बंधने के अनन्तर काल करके मनुष्यानुपूर्वी का अनुभव करते हुए उसकी अन्तर्मुहूर्त कम बीस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति उदीरणा के योग्य होती है ।
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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