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________________ [ २०३ उदीरणाकरण ] किसी अप्रमत्तसंयत ने आहारकसप्तक की उसके योग्य उत्कृष्ट संक्लेश से उत्कृष्ट स्थिति बांधी और तत्काल उत्कृष्ट स्थिति वाले अपनी मूल प्रकृति से अभिन्न अन्य प्रकृतियों के दलिकों को उसमें संक्रांत किया। तब वह सर्वोत्कृष्ट अन्त: कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण स्थिति हुई । आहारकसप्तक के बंध के अनन्तर अन्तर्मुहूर्त अतिक्रमण कर उसने आहारक शरीर का आरंभ किया। उसे आरंभ करते हुये लब्धि के उपभोग (प्रयोग) से उत्सुकता होने से वह प्रमाद वाला हो जाता है, तब उस प्रमत्तसंयत के आहारक शरीर को उत्पन्न करते हुये आहारकसप्तक की अन्तर्मुहूर्त कम उत्कृष्ट स्थिति उदीरणा के योग्य होती है। यहां प्रमत्त होते हुये आहारक शरीर को आरंभ करने से उत्कृष्ट स्थिति की उदीरणा का स्वामी प्रमत्तसंयत ही जानना चाहिये । शेष प्रकृतियों के उदीरणा के स्वामी को गाथा में 'निरयगइए' इत्यादि पद से आचार्य ने स्वयं बतलाया है। अर्थात् नरकगति की और अपि शब्द से नरकानुपूर्वी की उत्कृष्ट स्थिति को कोई तिर्यंच पंचेन्द्रिय या मनुष्य बांधकर के और उत्कृष्ट स्थिति बंधने के अनंतर अन्तर्मुहूर्त बीतने पर तीन अधस्तन पृथ्वियों में से किसी एक पृथ्वी में उत्पन्न हुआ । उसके प्रथम समय में नरकगति की अन्तर्मुहूर्तहीन बीस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण सभी स्थिति उदीरणा के योग्य होती है। नरकानुपूर्वी अपान्तराल गति में तीन समय तक उत्कृष्ट स्थिति उदीरणा के योग्य होती है । प्रश्न यहां ऊधस्तन तीन पृथ्वियों के ग्रहण करने का क्या प्रयोजन है ? उत्तर नरकगति आदि की उत्कृष्ट स्थिति को बांधता हुआ जीव अवश्य ही कृष्ण लेश्या के परिणामों से संयुक्त होता है और कृष्ण लेश्या के परिणाम से युक्त जीव काल करके नरकों में उत्पन्न होता है। यदि जघन्य कृष्णलेश्या परिणाम वाला है तो पांचवी पृथ्वी में उत्पन्न होता है । मध्यम कृष्णलेश्या परिणाम वाला है तो छठी पृथ्वी में और यदि उत्कृष्ट कृष्णलेश्या परिणाम वाला है तो सातवीं पृथ्वी में उत्पन्न होता है । इसलिये यहां अधस्तन तीन पृथ्वियों को ग्रहण करने का यह प्रयोजन है तथा - — देवगति देवमणुया-णुपुव्वी आयाव विगल सुहुमतिगे । अंतोमुहुत्तभग्गा, तावयगूर्ण तदुक्कस्सं ॥ ३३॥ शब्दार्थ – देवगति – देवगति, देवमणुयाणुपुव्वी - देव और मनुष्यानुपूर्वी, आयावआतप, विगल सुहुमतिगे - विकलत्रिक और सूक्ष्मत्रिक, अंतोमुहुत्तभग्गा अन्तर्मुहूर्त भग्न होने पर, तावयगूणं – उससे हीन, तदुक्कस्सं - उसकी उत्कृष्ट स्थिति । गाथार्थ देवगति और देवानुपूर्वी, मनुष्यानुपूर्वी, आतप, विकलत्रिक, सूक्ष्मत्रिक की उत्कृष्ट स्थिति उदीरणा अन्तर्मुहूर्त भिन्न होने पर उस अन्तर्मुहूर्त से हीन उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण है । ― -
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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