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________________ १५२ ] [ कर्मप्रकृति गुणस्थानों से गिरते हुए जीव के वेदनीय की उदीरणा सादि है और उपशांतमोहनीय गुणस्थान से गिरते हुए जीव के मोहनीय की उदीरणा सादि है। इस स्थान को प्राप्त नहीं हुए जीव की उदीरणा अनादि है। ध्रुव और अध्रुव उदीरणा पूर्व के समान क्रमशः अभव्य और भव्य जीवों की अपेक्षा जानना चाहिये। - आयुकर्म की उदीरणा सादि और अध्रुव है। आयु कर्म की अंतिम आवलिका में नियम से उदीरणा नहीं होती है। इसलिये वह अध्रुव है । पुनः परभव की उत्पत्ति के प्रथम समय में प्रवर्तित होती है, इसलिये वह सादि है। इस प्रकार मूल प्रकृतियों की सादि-अनादि प्ररूपणा जानना चाहिये। अब उत्तर प्रकृतियों में इसका निरूपण करते हैं। उत्तर प्रकृतियों की सादि-अनादि प्ररूपणा करने के लिये गाथा में 'दसुत्तर सउत्तरासिं पि' यह पद दिया है। यहां सादि और अध्रुव की अनुवृत्ति होती है। इसलिये इसका यह अर्थ है कि पांच प्रकार का ज्ञानावरण, चार प्रकार का दर्शनावरण, मिथ्यात्व, तैजससप्तक, वर्णादि बीस, स्थिर, अस्थिर, शुभ-अशुभ, अगुरुलघु, निर्माण और अन्तराय पंचक इन अड़तालीस प्रकृतियों को छोड़कर शेष सभी एक सौ दस उत्तर प्रकृतियों की उदीरणा दो प्रकार की होती है, यथा सादि और अध्रुव, अध्रुवोदयवाली होने से इन प्रकृतियों की यह सादि और अध्रुवता स्वतः सिद्ध है। मिच्छत्तस्स चउद्धा, तिहा य आवरणविग्घचउदसगे। थिरसुभ सेयर उवघायवज धुवबंधिनामे य॥३॥ शब्दार्थ – मिच्छत्तस्स - मिथ्यात्व की, चउद्धा – चारों प्रकार की, तिहा – तीन प्रकार की, य - और, आवरणविग्घचउदसगे - आवरणद्विक और अन्तराय की चौदह प्रकृतियों की, थिरसुभ सेयर – स्थिर, शुभ और इनकी इतर, उवघायवज्ज - उपघात को छोड़कर, धुवबंधिनामेनामकर्म की ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों की, य - और। ___ गाथार्थ – मिथ्यात्व की उदीरणा चारों प्रकार की होती है। आवरणद्विक ५ ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण और ५ अन्तराय इन चौदह प्रकृतियों की और स्थिर, अस्थिर, शुभ-अशुभ और उपघात को छोड़कर शेष नामकर्म की ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों की उदीरणा तीन प्रकार की होती है। विशेषार्थ – मिथ्यात्व की उदीरणा चार प्रकार की होती है, यथा - सादि, अनादि, ध्रुव, अध्रुव। सम्यक्त्व को प्राप्त होने वाले जीव के मिथ्यात्व की उदीरणा नहीं होती है। क्योंकि उसके मिथ्यात्व के उदय का अभाव है। किन्तु सम्यक्त्व से गिरकर मिथ्यात्व को प्राप्त हुए जीव के पुनः होने लगती है, इसलिये वह सादि है।
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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