SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 187
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ १५३ उदीरणाकरण ] इस स्थान को अप्राप्त जीव के मिथ्यात्व की अनादि उदीरणा होती है । अभव्यों के ध्रुव और भव्यों के अध्रुव उदीरणा होती है । ज्ञानावरण पंचक, दर्शनावरण चतुष्क और अन्तराय पंचक रूप चौदह प्रकृतियों की उदीरणा तीन प्रकार की होती है, यथा अनादि, ध्रुव, अध्रुव । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है -- इन प्रकृतियों के ध्रुवोदया होने से अनादि उदीरणा है और अभव्यों के ध्रुव उदीरणा है। भव्य ai hare गुणस्थान में आवलिका काल शेष रह जाने पर विच्छेद होने से अध्रुव उदीरणा है । तर स्थिर शुभ अर्थात् स्थिर, अस्थिर और शुभ, अशुभ, उपघात को छोड़कर नामकर्म की शेष ध्रुवबंधिनी, तैजससप्तक, अगुरुलघु, वर्णादि बीस और निर्माण कुल मिलाकर तेतीस प्रकृतियों की उदीरणा तीन प्रकार की हैं, यथा - अनादि, ध्रुव और अध्रुव । इनमें अनादिपना ध्रुवोदयी होने से है । ध्रुवत्व अभव्यों की अपेक्षा और अध्रुवत्व भव्यों की अपेक्षा से है । क्योंकि सयोगीकेवली के चरम समय में इनका विच्छेद पाया जाता है । शेष एक सौ दस अध्रुवोदया प्रकृतियों की उदीरणा अध्रुवोदयी होने से सादि है और इनकी अध्रुवता का कथन पहले किया जा चुका है। इस प्रकार मूल और उत्तर प्रकृतियों की सादि-अनादि प्ररूपणा जानना चाहिये । उदीरणा स्वामित्व - - अब क्रमप्राप्त उदीरणा स्वामित्व का विचार करते हैं। पहले मूल प्रकृतियों की उदीरणा के स्वामियों को कहते हैं घाईणं छउमत्था, उदीरगा रागिणो य मोहस्स । तइयाऊण पमत्ता, जोगंता उत्ति दोण्हं च ॥ ४ ॥ शब्दार्थ घाई घाति कर्मों के, छउमत्था छद्मस्थ, उदीरगा उदीरक, रागिणो - सरागी, य - और, मोहस्स– मोहनीय कर्म के, तइयाऊण तृतीय ( वेदनीय) और आयु के, पत्ता - प्रमत्तगुणस्थान तक के, जोगंता उत्ति - सयोगी गुणस्थान तक के, दोन्हं – दो के, च और । - - गाथार्थ (तीन) घाति कर्मों के उदीरक छद्मस्थ जीव हैं । मोहनीय कर्म के उदीरक रागी जीव हैं । वेदनीय और आयु कर्म के प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक के जीव उदीरक हैं। शेष दो कर्मों के उदीरक सयोगीकेवली गुणस्थान तक के जीव हैं । 1
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy