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________________ १२४ ] [कर्मप्रकृति बहुत अधिक चिरकाल के बाद सम्यक्त्व से मिथ्यात्व में गये हुए अर्थात् दो बार छियासठ (६६+६६=१३२) सागरोपम काल तक सम्यक्त्व को पाल कर मिथ्यात्व गुणस्थान को प्राप्त हुए जीव के पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण काल के द्वारा उन सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व को उद्वलन करते हुए अल्प उद्वलन संक्रम के समय उन दोनों प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है अर्थात् सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के द्विचरम खंड के जो दलिक चरम समय में मिथ्यात्व प्रकृति रूप परस्थान में प्रक्षेपण किया जाता है, वही इन दोनों प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशसंक्रम कहलाता है। तथा – संजोयणाण चतुरुव-समित्तु संजोजइत्तु अप्पद्धं। अयरच्छावट्ठिदुर्ग, पालिय सकहप्पवत्तंते॥१०१॥ गाथार्थ – संजोयणाण- संयोजना (अनन्तानुबंधी) को, चतुरुवसमित्तु - चार बार उपशमना कर, संजोजइत्तु – बांधकर, अप्पद्धं - अल्पकाल, अयरच्छावट्ठिदुगं - दो बार छियासठ सागरोपम तक, पालिय – पालन कर, सकहप्पवत्तंते - अपने यथाप्रवृत्त के अंत में। गाथार्थ – चार बार मोहनीय को उपशमना कर पुनः अल्पकाल तक अनन्तानुबंधी कषाय को बांधकर पुनः दो छियासठ सागरोपम काल तक सम्यक्त्व को पालकर अपने यथाप्रवृत्त के अंतिम समय में अनन्तानुबंधी कषायों का जघन्य प्रदेश संक्रम करता है। विशेषार्थ – चार बार मोहनीय कर्म को उपशमा कर, यहां चार बार मोहनीय कर्म के उपशम से क्या प्रयोजन है ? तो उसका प्रयोजन बहुत अधिक कर्म पुद्गलों की निर्जरा का बोध कराना है कि चारित्रमोहनीय की प्रकृतियों का उपशम करता हुआ जीव स्थितिघात रसघात गुणश्रेणी और गुणसंक्रम के द्वारा बहुत से कर्म पुद्गलों की निर्जरा करता है। और फिर चार बार मोहनीय का उपशम करके मिथ्यात्व को जाता है और मिथ्यात्व को जाता हुआ अल्पकाल तक संयोजना को संयोजित कर अर्थात् अनन्तानुबंधी कषायों को बांधकर उस समय उसके चारित्र मोहनीय के दलिक अत्यल्प ही रहते हैं। क्योंकि चार बार मोह के उपशम काल में उनका स्थितिघात आदि के द्वारा घात कर दिया जाता है। तदनन्तर अनन्तानुबंधी कषायों को बांधता हुआ उनमें यथाप्रवृत्तसंक्रम के द्वारा ही चारित्रमोहनीय के दलिक संक्रमाता है। इसके पश्चात् अन्तर्मुहूर्त बीत जाने पर वह फिर सम्यक्त्व को प्राप्त होता है। तब दो छियासठ सागरोपम तक सम्यक्त्व का अनुपालन कर अनन्तानुबंधी कषायों के क्षपण के लिये उद्यत होता है। उस जीव के अपने यथाप्रवृत्तकरण के अंतिम समय में उन अनन्तानुबंधी कषायों का विध्यातसंक्रम के द्वारा जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है। उससे आगे अपूर्वकरण में गुणसंक्रम प्रवृत्त होता है। इसलिये वहां जघन्य प्रदेशसंक्रम नहीं पाया जाता है, तथा – . अट्ठकसायासाए, य असुभधुवबंधि अत्थिरतिगे य। सव्वलहुं खवणाए, अहापवत्तस्स चरिमम्मि ॥१०२॥
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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