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संक्रमकरण ]
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गाथार्थ – दो छियासठ सागरोपम तक स्त्रीवेद और स्त्यानर्धित्रिक की निर्जरा कर अपनी अपनी प्रकृति का क्षपण करते हुए यथाप्रवृत्तकरण के अंत में उनका जघन्य प्रदेशसंक्रम करता है। इसी प्रकार मिथ्यात्व के विषय में भी जानना चाहिये।
विशेषार्थ – दो छियासठ सागरोपम अर्थात् एक सौ बत्तीस सागरोपम काल तक सम्यक्त्व का अनुपालन कर स्त्रीवेद और स्त्यानर्धित्रिक इन चार प्रकृतियों को गला कर अर्थात् इन प्रकृतियों संबंधी बहुत से कर्मदलिकों की निर्जरा कर और कुछ रहे कर्मदलिकों की क्षपणा करने के लिये उद्यत हुए जीव के यथाप्रवृत्तकरण के अंतिम समय में विध्यातसंक्रम के द्वारा जघन्य प्रदेशसंक्रमण होता है। इसके आगे अपूर्वकरण में गुणसंक्रम होने से बहुत कर्मदलिकों का संक्रमण संभव है। अत: जघन्य प्रदेशसंक्रम नहीं पाया जाता है। इसी बात को स्पष्ट करने के लिये यहां यथाप्रवृत्तकरण के अंत समय में - अहापवत्तस्संते - पद ग्रहण किया गया है।
एमेव मिच्छत्ते अर्थात् इसी तरह पूर्वोक्त प्रकार से मिथ्यात्व का भी जघन्य प्रदेशसंक्रम जानना चाहिये। जिसका आशय यह है कि दो छियासठ सागरोपम तक सम्यक्त्व का अनुपालन कर और उतने काल तक मिथ्यात्व की निर्जरा कर कुछ शेष रहे मिथ्यात्व के क्षपण करने के लिये उद्यत हुआ और अपने यथाप्रवृत्तकरण के अंत समय में वर्तमान जीव के विध्यातसंक्रमण के द्वारा मिथ्यात्व का जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है, इससे आगे गुणसंक्रम होता है। इस कारण जघन्य प्रदेशसंक्रम प्राप्त नहीं होता है। तथा –
हस्सगुणसंकमद्धाए, पूरयित्ता समीससम्मत्तं।
चिरसंमत्ता मिच्छत्त - गयस्सुव्वलणथोगो सिं॥१००॥ शब्दार्थ – हस्सगुणसंकमद्धाए – अल्पकालिक गुणसंक्रमण के द्वारा, पूरयित्ता - पूर कर, समीससम्मत्तं – मिश्रमोहनीय को, चिरसंमत्ता - चिरकाल तक सम्यक्त्व में रह कर, मिच्छत्तगयस्स - मिथ्यात्व में गये हुए, उव्वलणथोगो – स्तोक उद्वलना होने पर, सिं - उनकी।
गाथार्थ – अल्पकालिक गुणसंक्रम के द्वारा मिश्र और सम्यक्त्व मोहनीय प्रकृति को पूर कर के चिरकाल तक सम्यक्त्व के साथ रह कर मिथ्यात्व में गये हुए जीव के अल्प उद्वलना होने पर उन प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशसंक्रम होता है।
विशेषार्थ – सम्यक्त्व को उत्पन्न कर अल्प गुणसंक्रमाद्धा से अर्थात् अल्पकालिक गुणसंक्रमण के द्वारा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व (मिश्र मोहनीय) को मिथ्यात्व के दलिकों से पूर कर (बांध कर) १. क्षायोपशमिक सम्यक्त्व का उत्कृष्ट काल छियासठ सागरोपम है। अतः दो बार क्षायोपशमिक सम्यक्त्वी होने की विवक्षा बताने के लिये दो छियासठ सागरोपम, यह संकेत दिया गया है।