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________________ संक्रमकरण ] __ [ १०५ दर्शनावरणचतुष्क, अन्तरायपंचक और औदारिकसप्तक इन इक्कीस प्रकृतियों को छोड़कर शेष एक सौ पांच प्रकृतियों का होता है। वह इस प्रकार जानना चाहिये - सभी प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम वक्ष्यमाण लक्षण वाले गुणितकर्मांश और कर्मक्षपण के लिये उद्यत जीवों के पाया जाता है, अन्यत्र नहीं। इसलिये वह सादि है उससे अन्य सभी संक्रम अनुत्कृष्ट कहलाता है और वह उपशमश्रेणी में विच्छिन्न हो जाता है, किन्तु वहां से प्रतिपात होने पर होता है, इसलिये वह सादि है। उस स्थान को प्राप्त नहीं करने वाले जीव के अनादि संक्रम होता है। ध्रुव और अध्रुव संक्रम अभव्य और भव्य की अपेक्षा क्रमशः जानना चाहिये, तथा सेसेत्यादि' अर्थात इन्हीं एक सौ पांच प्रकृतियों के शेष विकल्प – जघन्य और उत्कृष्ट सादि और अध्रुव होते हैं। ज्ञानावरणादि इक्कीस प्रकृतियों के जघन्य, उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट विकल्प सादि और अध्रुव होते हैं। एक सौ पांच प्रकृतियों के जघन्य और उत्कृष्ट विकल्प सादि और अध्रुव रूप कहे जा चुके हैं। ज्ञानावरण आदि कर्मों का उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम गुणितकर्मांश मिथ्यादृष्टि जीव में कदाचित पाया जाता है शेषकाल में तो अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है। इसलिये ये दोनों ही सादि और अध्रुव होते हैं। जघन्य प्रदेशसंक्रम तो सादि और अध्रुव रूप.से कह ही दिया है। शेष प्रकृतियों के सभी उत्कृष्ट, अनुकृष्ट, जघन्य और अजघन्य विकल्प अध्रुवं सत्तावाले होने से मिथ्यात्व की ध्रुव सत्ता वाले जीव के भी सदैव पतद्ग्रह में प्राप्त नहीं होने से तथा नीचगोत्र, असाता और सातावेदनीय कर्मों के परावर्तमान होने से सादि और अध्रुव जानना चाहिये। इस प्रकार सादि अनादि प्ररूपणा जानना चाहिये। उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम स्वामित्व ____ अब उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम स्वामित्व का कथन करते हैं। वह गुणितकांश जीव के पाया जाता है अतः उसका निरूपण करने के लिये कहते हैं - जो बायरतसकाले - Yणं कम्मट्टिइं तु पुढवीए। बायर पजत्तापज्जत्तगदीहेयरद्धासु॥७४॥ जोगकसाउक्कोसो, बहुसो निच्चमवि आउबंधं च। जोगजहण्णेणुवरि - ल्लठिइनिसेगं बहुं किच्चा॥ ७५॥ बायरतसेसु तकाल-मेवमंते य सत्तमखिईए। सव्वलहुं पज्जत्तो, जोगकसायाहियो बहुसो॥७६ ॥ १. संसारचक्र में भ्रमण करते हुये जीवों में से संयोगवशात अन्य जीवों की अपेक्षा जिस जीव को अधिकतम कर्मप्रदेशों की सत्ता प्राप्त हो, उसे गुणितकर्माश कहते हैं। उसका यहां स्पष्टीकरण किया है।
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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