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________________ १०४ ] [ कर्मप्रकृति प्रदेशसंक्रम की सादि अनादि प्ररूपणा अब प्रदेशसंक्रम की सादि अनादि प्ररूपणा करते हैं। लेकिन मूल प्रकृतियों का परस्पर संक्रम नहीं होता है, इसलिये उत्तर प्रकृतियों की सादि अनादि प्ररूपणा करते हैं - धुवसंकम अजहन्नो णुक्कोसो तासि वा विवजित्तु। आवरणनवगविग्छ, उरालियसत्तगं चेव॥७२॥ साइयमाइ चउद्धा, सेसविगप्पा य सेसगाणं च। सव्वविगप्पा नेया, साई अधुवा पएसम्मि॥ ७३॥ शब्दार्थ - धुवसंकम - ध्रुवसत्ताका प्रकृतियों का संक्रम, अजहन्नो – अजघन्य, णुक्कोसो - अनुत्कृष्ट, तासिं – उनका, वा - और, विवज्जित्तु – छोड़कर, आवरणनवग - आवरणनवक (पांच ज्ञानावरण चार दर्शनावरण) विग्धं – अंतरायपंचक, उरालियसत्तगं – औदारिकसप्तक, चेव - और इसी प्रकार। साइयमाइ - सादि आदि, चउद्धा – चार प्रकार का, सेसविगप्पा – शेष विकल्प, य - और, सेसगाणं - शेष प्रकृतियों के, च - और, सव्वविगप्पा – सर्व विकल्प, नेया – जानना चाहिये, साई - सादि, अधुवा – अध्रुव, पएसम्मि – प्रदेशसंक्रम में। ___ गाथार्थ – प्रदेशसंक्रम में ध्रुवसत्ताका प्रकृतियों का अजघन्य तथा आवरणनवक, ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणचतुष्क, अंतरायपंचक और औदारिकसप्तक इन इक्कीस प्रकृतियों को छोड़कर शेष ध्रुवसत्ताका प्रकृतियों का अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम सादि आदि चार प्रकार का होता है। और उन प्रकृतियों के शेष दो विकल्प और बाकी की प्रकृतियों के सर्व विकल्प सादि और अध्रुव जानना चाहिये। विशेषार्थ – पूर्वोक्त एक सौ छब्बीस ध्रुवसत्ताका प्रकृतियों का अजघन्य प्रदेशसंक्रम चार प्रकार का होता है, यथा – सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव। इनमें आगे जिसका लक्षण कहा जाने वाला है, ऐसा क्षपितकर्मांश जीव जब कर्मक्षपण करने के लिये उद्यत होता है, तब वह सभी ध्रुवसत्ता वाली प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशसंक्रम करता है। इसलिये वह सादि और अध्रुव है। उसके सिवाय अन्य सभी अजघन्य संक्रम होता है और वह उपशमश्रेणी में बंधविच्छेद होने पर सभी प्रकृतियों का नहीं होता है, किन्तु प्रतिपतन होने पर होता है, इसलिये वह सादि संक्रम है। इस स्थान को प्राप्त नहीं करने वाले जीव का अनादि संक्रम है तथा ध्रुव और अध्रुव क्रमशः अभव्य और भव्य की अपेक्षा से होते हैं। ध्रुवसत्ताका प्रकृतियों का अनुत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम भी चार प्रकार का होता है। क्या सभी प्रकृतियों का? ऐसा प्रश्न करने पर प्रत्युत्तर में बतलाते हैं कि सभी ध्रुवसत्ताका प्रकृतियों का नहीं किन्तु ज्ञानावरणपंचक,
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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