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________________ संक्रमकरण ] [ १०३ है। उद्वलनासंक्रम के द्वारा द्विचरम स्थितिखंड का चरम समय में जो दलिक स्वस्थान में प्रक्षेपण किया जाता है, उस प्रमाण से चरम स्थितिखंड का अपहार काल पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण जानना चाहिये। इसलिये ये दोनों ही समान काल प्रमाण वाले हैं। स्तिबुकसंक्रम इस प्रकरण में एक छट्ठा स्तिबुकसंक्रम भी है। किन्तु उसमें करण का लक्षण नहीं पाये जाने से उसे संक्रमकरण में संबद्ध नहीं किया जाता है। क्योंकि सलेश्य वीर्य को करण कहते हैं – 'करणं हि सलेश्यं वीर्यमुच्यते' और लेश्याओं से अतीत अयोगिकेवली भगवान भी द्विचरम समय में बहत्तर प्रकृतियों को स्तिबुकसंक्रम के द्वारा संक्रांत करते हैं और स्तिबुकसंक्रम के द्वारा संक्रांत हुआ कर्मदलिक सर्वथा पतद्ग्रह प्रकृतिरूप से परिणमित नहीं होता है। इसलिये वह संक्रम में संबद्ध नहीं किया जाता है, परन्तु यह भी संक्रम है, इसलिये संक्रम के प्रस्ताव में उसका लक्षण निरूपण करने के लिये गाथा में थियुगो' इत्यादि पद कहा है। जिसका अर्थ यह है कि अनुदय प्राप्त जो प्रकृति हैं, उनका जो कर्मदलिक सजातीय उदय प्राप्त समान काल स्थिति वाली प्रकृति में संक्रांत किया जाता है और संक्रांत करके अनुभव किया जाता है वह स्तिबुकसंक्रम कहलाता है - अनुदीर्णाया अनुदयप्राप्तायाः सत्कं यत्कर्मदलिकं सजातीयप्रकृतावुदयप्राप्तायां समानकालस्थितौ संक्रमय्य चानुभवति ....... स स्तिबुकसंक्रमः। जैसे उदयप्राप्त मनुष्यगति में अनुदय प्राप्त शेष तीन गतियों का और उदय प्राप्त एकेन्द्रिय जाति में (पंचेन्द्रिय जाति में) शेष अनुदय प्राप्त चार जातियों का संक्रमण होता है। यह स्तिबुकसंक्रम ही प्रदेशानुभव या प्रदेशोदय कहलाता है। इस प्रकार प्रदेशसंक्रम का लक्षण और उसके भेदों का विवेचन जानना चाहिये। १. उदययोग्य १२२ प्रकृतियों में से ५ ज्ञानावरण, ५ अन्तराय और ४ आयु इन प्रकृतियों के सिवाय शेष प्रकृतियों का स्तिबुकसंक्रम होता है। क्योंकि ज्ञानावरण और अन्तराय कर्म ध्रुवोदय हैं। जब तक इनका विच्छेदन नहीं होता है तब तक इनका उदय बना ही रहता है तथा एक आयु का उदय पूर्ण न हो तब तक बद्धायु का अबाधाकाल पूर्ण नहीं होता है । इसलिये इन कर्मत्रिक की प्रकृतियों में स्तिबुकसंक्रम संभव नहीं है। २. यहां प्रयुक्त 'भी' शब्द से यह ध्वनित होता है कि स्तिबुकसंक्रम अयोगि केवली गुणस्थान के अतिरिक्त अन्य गुणस्थानों में भी होता रहता है। ३. क्योंकि इससे तीव्र रस पर प्रकृति में संक्रांत करके भोग लिया जाता है। इसलिये संक्रम के विचार प्रसंग में इसका भी ग्रहण किया गया है। ४. पंचेन्द्रिय जाति के उल्लेख का कोई विशेष आशय नहीं है। स्वेच्छा से द्वीन्द्रिय आदि जातियों को भी कह सकते हैं। ५. स्तिबुकसंक्रम और प्रदेशोदय के अन्तर का स्पष्टीकरण परिशिष्ट में देखिये। ६. दिगम्बर कर्मग्रन्थों में आगत संक्रम करण की संक्षिप्त रूपरेखा परिशिष्ट में देखिये।
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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