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________________ १०६ ] [ कर्मप्रकृति जोगजवमझुवरि, मुहुत्तमच्छित्तु जीवियवसाणे। तिचरिमदुचरिमसमए, पूरित्तु कसाय उक्कस्सं॥ ७७॥ जोगुक्कोसं चरिमदु - चरिमे समए य चरिमसमयम्मि। संपुण्णगुणियकम्मो, पगयं तेणेह सामित्ते॥ ७८॥ शब्दार्थ – जो – जो, बायरतसकालेणूणं – बादर त्रसकाल से न्यून, कम्मद्विई – कर्म स्थिति, तु - तक, पुढवीए – पृथ्वीकाय में, बायर – बादर, पज्जत्तापज्जत्तग - पर्याप्त और अपर्याप्त रूप से, दीहेयरद्धासु – दीर्घ और अल्पकाल में। जोगकसाउक्कोसो – उत्कृष्ट योग और कषाय में, बहुसो – बहुधा, बहुतर बार, निच्चमवि - हमेशा, आउबंधं - आयुबंध कर, च - और, जोगजहण्णेण – जघन्य योग से, उवरिल्लठिइनिसेगं - ऊपर की स्थिति के निषेकों की, बहु – अधिक, किच्चा – रचना करके। बायरतसेसु - बादरत्रसकाय में, तक्कालं - उस काल, एवं - इस प्रकार, अंते – अन्त में, य - और, सत्तमखिईए – सप्तम पृथ्वी में, (सातवें नरक में), सव्वलहुं - सबसे लघु, पजत्तो - पर्याप्त, जोगकसायाहिओ – उत्कृष्ट योग और कषाय में, बहुसो – बहुत बार। ___जोगजवमझुवरि - योग यवमध्य से ऊपर, मुहुत्तमच्छित्तु - अन्तर्मुहूर्त तक रह कर, जीवियवसाणे - भव के अन्त में, तिचरिमदुचरिमसमए – त्रिचरम या द्विचरम समय में, पूरित्तु - प्राप्त कर, कसायउक्कस्सं - उत्कृष्ट कसाय को। जोगुक्कोसं – उत्कृष्ट योगस्थान को, चरिमदुचरिमसमये – चरम या द्विचरम समय में, य - और, चरिमसमयम्मि – चरम समय में, संपुण्णगुणियकम्मो – सम्पूर्ण गुणितकर्मांश, पगयं - प्रकृत में, तेण – उससे, इह – यहां, सामित्ते – स्वामित्व। ___गाथार्थ – जो जीव बादर त्रसकाय के काल से न्यून कर्मस्थिति प्रमाण बादर पृथ्वीकाय के भवों में दीर्घकाल तक बादर पर्याप्तकाल में और अपर्याप्त रूप से अल्पकाल तक रहा, बहुत बार उत्कृष्ट योग और उत्कृष्ट कषाय में रहा और हमेशा ही आयुबंध कर जघन्य योग में रह कर ऊपर की स्थिति के निषेकों में अधिक दलिक रचना की। तदनन्तर - इस प्रकार के बादर पृथ्वीकाय से निकल कर बादर त्रसकाल में उसकी कायस्थिति तक परिभ्रमण कर अंत में सातवें नरक में सर्व से लघु काल में (शीघ्र) पर्याप्त होकर बहुत बार उत्कृष्ट योग और उत्कृष्ट कषाय स्थानों में रहा। तत्पश्चात् – योग यवमध्य के ऊपर अर्थात् योग यवमध्य रूप अष्ट सामयिक स्थानों के ऊपर अन्तर्मुहूर्त तक रह
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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