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________________ ७४ ] [कर्मप्रकति स्निग्ध, तनुप्रदेशी और स्फटिक अभ्रक के समान निर्मल होता है। मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मतपर्यायज्ञानावरण, चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण, संज्वलनचतुष्क, नव नोकषाय और अन्तराय पंचक इन पच्चीस प्रकृतियों के रसस्पर्धक देशघाती होते हैं। ये अपने विषयभूत ज्ञानादिगुणों – मतिज्ञानादिगुणों के एक देश का घात करते हैं। इस प्रकार के स्वभाव वाले कर्मों को देशघाती कहते हैं, जैसे – कुछ अनेक बड़े-बड़े सैकड़ों छिद्रों से व्याप्त होते हैं, यथा बांस से बनाई गई चटाई। कितने ही मध्यम अनेक (सैकड़ों) छिद्रों से, जैसे ऊनी कम्बल और कितने ही अत्यन्त सूक्ष्म सैकड़ों छिद्रों से, जैसे कि सूक्ष्म रेशमी वस्त्र आदि तथा ये देशघाती रस स्पर्धक अल्प स्नेह वाले और विशेष निर्मलता से रहित होते हैं। जैसा कि कहा है - देशविघाइत्तणओ इयरो कडकंबलंसुसंकासो। विविहबहुछिद्दभरिओ अप्पसिणेहो अविमलो य॥ अर्थात् – देशघाती स्पर्धक कट (चटाई) कंबल और अंशुक (वस्त्र विशेष) के समान विविध प्रकार के बहुत छिद्रों से व्याप्त होते हैं, अल्प स्नेह अविमल (निर्मलता रहित) होते हैं। __वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र इन चारों कर्म सम्बंधी एक सौ ग्यारह प्रकृतियों के रसस्पर्धक अघाती जानना चाहिये। केवल वेद्यमान सर्वघाति रसस्पर्धकों के संबंध से वे भी सर्वघाती होते हैं, जैसे कि लोक में स्वयं चोर नहीं है, फिर भी चोरों के साथ संबंध रखने से चोर कहा जाता है। कहा भी है - जाण न विसओ घाइत्तणम्मि ताणं पि सव्वघाइरसो। जाइ घाइसगासेण चोरया वेहऽचोराणं॥ अर्थात् – आत्मगुणों का घात करना जिनका विषय नहीं है, उन कर्मों के भी रसस्पर्धक घाति कर्मों के संबंध से सर्वघाति रस वाले हो जाते हैं। जैसे कि इस लोक में जो चोर नहीं हैं वे भी चोर के सम्पर्क से चोर कहे जाते हैं। दर्शनमोहनीय कर्म के स्पर्धक अब दर्शनमोहनीय कर्म के स्पर्धकों की प्ररूपणा करते हैं - सव्वेसु देसघाईसु, सम्मत्तं तदुवरितु वा मिस्सं। दारुसमाणस्साणंतमोत्ति मिच्छत्तमुप्पिमओ॥ ४५॥ शब्दार्थ – सव्वेसु – समस्त, देसघाईसु – देशघाती स्पर्धकों में, सम्मत्तं – सम्यक्त्व मोहनीय के, तदुवरि – उससे ऊपर, तु – तो, वा - और, मिस्सं – मिश्र मोहनीय के, दारुसमाणस्साणंतमोत्ति
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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