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________________ [ ७५ संक्रमकरण ] दारु के समान (द्विस्थानक) सर्वघाति स्पर्धकों के अनन्तवें भाग प्रमाण, मिच्छत्तं – मिथ्यात्व के, उप्पिं - ऊपर, अओ – उससे। गाथार्थ – सम्यक्त्व मोहनीय समस्त देशघाति स्पर्धकों में है, उनसे ऊपर जो दारु के समान (द्विस्थानक) सर्वघाति स्पर्धकों के अनन्तवें भाग प्रमाण स्पर्धक मिश्र मोहनीय के और उससे ऊपर (सर्वघाती) . स्पर्धक मिथ्यात्व मोहनीय के होते हैं। विशेषार्थ – सत्ता की अपेक्षा दर्शनमोहनीय के रसस्पर्धक दो प्रकार के होते हैं – १. देशघाती और २. सर्वघाती। इनमें से जो देशघाती स्पर्धक हैं वे एकस्थानक और द्विस्थानक रस के संयुक्त होते हैं। वे सब स्पर्धक सम्यक्त्व प्रकृति में होते हैं और 'तदुवरि तु वा मिस्सं' उसके ऊपर मिश्रमोहनीय के स्पर्धक होते हैं अर्थात जहां पर देशघाती रसस्पर्धक समाप्त होते हैं, उनसे ऊपर सम्यग्मिथ्यात्व के रसस्पर्धक होते हैं जो सर्वघाती ही होते हैं और द्विस्थानक रस से संयुक्त होते हैं। ये सम्यग्मिथ्यात्व के रसस्पर्धक तब तक जानना चाहिये जब तक कि 'दारुसमाणस्साणंतमोत्ति' अर्थात् दारु, (लकड़ी) के समान द्विस्थानक रस है, तत्सम्बंधी स्पर्धकों का अनन्तवां भाग जहां समाप्त होता है और जहां सम्यग्मिथ्यात्व के स्पर्धक समाप्त होते हैं, वहां से लेकर शेष द्विस्थानक, त्रिस्थानक और चतुःस्थानक रस से युक्त जितने भी स्पर्धक होते हैं, वे सभी मिथ्यात्व के जानना चाहिये। इस प्रकार स्पर्धक प्ररूपणा का आशय समझना चाहिये। विशेष लक्षण प्ररूपणा अब विशेष लक्षण प्ररूपणा करते हैं - तत्थट्ठपयं उव्वट्टिया व ओवट्टिया व अविभागा। अणुभागसंकमो एस अन्नपगई निया वावि॥ ४६॥ शब्दार्थ – तत्थट्ठपयं – इसमें यह अर्थपद है (लक्षण रूप विशेष आशय), उव्वट्टिया - उद्वर्तना, व – अथवा, ओवट्टिया - अपर्वतना, व – अथवा, अविभागा- रसाविभाग, अणुभागसंकमोअनुभाग संक्रम, एस – यह, अन्नपगई - अन्य प्रकृति, निया – परिणमित, वावि – अथवा। गाथार्थ – इसमें यह अर्थपद है अर्थात् अनुभागसंक्रम का यह विशेष लक्षण है कि रसाविभागों की उद्वर्तना अथवा अपवर्तना अथवा अन्य प्रकृतिरूप परिणमन अनुभागसंक्रम जानना चाहिये। विशेषार्थ – इस अनुभागसंक्रम में यह अर्थपद है अर्थात् यथार्थ स्वरूप का ज्ञान कराने वाला पद है – जो उद्वर्तित अर्थात् अधिक परिमाण किये हुये अथवा अपवर्तित अर्थात् अल्प परिमाण किये हुये अथवा अन्य प्रकृतिगत अर्थात् अन्य प्रकृति स्वभाव रूप से परिणमित हुये अविभाग अनुभाग हैं, ये सभी
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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