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________________ संक्रमकरण ] [ ७३ अनुभागसंक्रम अब अनुभागसंक्रम के कथन करने का अवसर प्राप्त है। उसके विचार के यह छह अधिकार हैं - १. भेद स्पर्धक प्ररूपणा, २. विशेष लक्षण प्ररूपणा, ३. उत्कृष्टानुभाग संक्रम प्ररूपणा, ४. जघन्यानुभाग संक्रम प्रमाण प्ररूपणा, ५. साधनादि प्ररूपणा, ६. स्वामित्व प्ररूपणा। इनमें से पहले भेद स्पर्धक प्ररूपणा करते हैं - मूलुत्तरपगइगतो अणुभागे संकमो जहा बंधे। फड्डगनिद्देशो सिं, सव्वेयरघायऽघाईणं॥४४॥ शब्दार्थ - मूलुत्तरपगइगतो – मूल और उत्तर प्रकृतियों के भेद कहे हैं, उसी प्रकार, अणुभागे संकमो – अनुभागसंक्रम में, जहा बंधे – जैसा बंध शतक में, फड्डग निद्देसो – स्पर्धक प्ररूपणा, सिंयह, सव्वेयरघायऽघाईणं – सर्वघाती, देशघाती और अघाती प्रकृतियों की। गाथार्थ – जिस प्रकार बंधशतक में मूल और उत्तर प्रकृतियों के भेद कहे हैं उसी प्रकार अनुभागसंक्रम में भी जानना तथा सर्वघाती, देशघाती और अघाती प्रकृतियों की स्पर्धक प्ररूपणा भी बंधशतक के समान जानना चाहिये। __विशेषार्थ – अनुभागसंक्रम विषयक दो भेद हैं – १. मूल प्रकृति अनुभागसंक्रम और २. उत्तरप्रकृति अनुभागसंक्रम। ये मूल और उत्तर प्रकृतिक भेद जैसे बंधशतक नामक ग्रंथ में कहे गये हैं, उसी प्रकार से यहां भी जानना चाहिये। इस प्रकार यह अनुभाग के विषय में भेद प्ररूपणा है। स्पर्धक प्ररूपणा स्पर्धक की प्ररूपणा करने के लिये गाथा में कहा है - फड्डगानिद्देसोसिं इत्यादि। अर्थात् इन सर्वघातिनी, देशघातिनी और अघातिनी प्रकृतियों के स्पर्धकों का निर्देश शतक ग्रन्थानुसार समझ लेना चाहिये। तथापि संक्षेप में यहां कुछ निर्देश किया जाता है कि केवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरण, आदि की बारह कषाय, निद्रा पंचक, मिथ्यात्व इन बीस प्रकृतियों के रस स्पर्धक सर्वघाती होते हैं, जो अपने घात करने योग्य केवलज्ञानादि गुणों का सर्वथाघात करते हैं, जिससे इन्हें सर्वघाती कहते हैं। ये सर्वघाती स्पर्धक ताम्रभाजन के समान निष्छिद्र, घी के समान अतिस्न्धि चिकने, द्राक्षा के समान सूक्ष्मतम प्रदेशों से उपचित्त और स्फटिक मणि या अभ्रक के समान अत्यन्त निर्मल होते हैं। कहा भी है - जो घाइय सविसयं सयलं सो होइ सव्वघाइरसो। सो निच्छिड्डो निद्धो तणुओ फलिहप्भहर विमलो॥ अर्थात् जो अपने विषयभूत गुण को पूर्णरूपेण घात करता है, वह सर्वघाती रस है। वह निष्छिद्र,
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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