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प्रकृत्यादि चार विभागों के द्वारा जीव के साथ कर्मबंध की सूक्ष्म, गहन तथा सविस्तृत व्याख्या प्रस्तुत की गई है। इस करण में १०२ गाथाएं हैं । करणाष्टक में सबसे बड़ा करण यही है ।
संक्रमणकरण ---- कर्मपुद् गलों का आत्मा के साथ बंधन होने पर ही संक्रमण हो सकता है, अतः बंधनकरण के बाद संक्रमणकरण पर विचार किया गया है।
अन्य कर्म रूप में स्थित प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, प्रदेशों का अन्य कर्म रूप से व्यवस्थापित कर देना संक्रम है।"
जिसके द्वारा अन्य प्रकृत्यादि रूप से कर्म पुद्गलों को व्यवस्थापित किया जाता है, उसे संक्रमणकरण कहते हैं । यथा बध्यमान सातावेदनीय में अबध्यमान असातावेदनीय का, बध्यमान उच्चगोत्र में अबध्यमान नीचगोत्र का संक्रमण होना । बध्यमानं मतिज्ञानावरणीय में बध्यमान श्रुतज्ञानावरणीय का संक्रमण होना । "
संक्रमणकरण की व्याख्या भी प्रकृतिसंश्रम स्थितिसंक्रम, अनुभागसंक्रम और प्रदेशसंक्रम के द्वारा की गई है।
प्रकृतिसंक्रम के अन्दर संक्रम का लक्षण, तत्संबंधी अपवाद और नियम, पतद्ग्रह, साद्यनादिप्ररूपणा तथा उत्तरप्रकृतिसंक्रम एवं पतद्ग्रहस्थानों का वर्णन किया गया है ।
स्थितिसंक्रम में स्थितिसंक्रम का भेद, विशेष लक्षण, उत्कृष्ट स्थितिसंक्रमपरिमाण, जघन्य स्थितिसंक्रमपरिमाण, साद्यनादिप्ररूपणा, जघन्योत्कृष्ट स्थितिसंक्रमस्वामित्वप्ररूपणा, इन छः अधिकारों पर विचार किया गया है। अनुभागसंक्रम में अनुभागसंक्रम का भेद, विशेष लक्षण, स्पर्धक, उत्कृष्ट अनुभागसंक्रम, जघन्य अनुभागसंक्रम, साद्यादि और स्वामित्व प्ररूपणा आदि का विवेचन किया गया है ।
प्रदेशसंक्रम में प्रदेशसंक्रम का सामान्य लक्षण, भेद, साद्यादिप्ररूपणा, उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम, जघन्य प्रदेशसंक्रम, इन पांच द्वारों से वर्णन किया गया है ।
उद्वर्तना-अपवर्तनाकरण -- स्थिति और अनुभाग को बढ़ाना, उद्वर्तना है और स्थिति और अनुभाग को कम करना अपवर्तना है। जीव के वीर्यविशेष की जिस परिणति से स्थिति और अनुभाग बढ़ाये जाते हैं, उसे उद्वर्तनाकरण और जीव के वीर्यविशेष की जिस परिणति से स्थिति अनुभाग कम किये जाते हैं, उसे अपवर्तनाकरण कहते हैं ।
प्रकृति और प्रदेश में उद्वर्तना-अपवर्तना न होने से इन दो करणों में स्थिति और अनुभाग ही होते हैं। इन दोनों करणों के व्याघात और निर्व्यापात रूप से दो भेद होते हैं ।
उदीरणाकरण - अकालप्राप्त कर्मपुद्गलों का उदयावलिका में प्रवेश करना उदीरणा है । ७ जिस वीर्यविशेष की परिणति से अकालप्राप्त कर्मदलिकों का उदयावलिका में प्रवेश होता है उसे उदीरणाकरण कहते हैं।"
१. संक्रमः प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशानामन्यकर्मरूपतया स्थितानामन्यकर्मस्वरूपेण व्यवस्थापनम् ।
२. संक्रम्यतेऽन्यप्रकृत्यादिरूपतया व्यवस्थाप्यते येन तत्संक्रमणम् ।
३ - यथा -- सातवेदनीये बध्यमाने असातवेदनीयस्य, उच्चैर्गोत्रे वा नीचैर्गोत्रस्य इत्यादि । बध्यमाने मतिज्ञानावरणीये बध्यमानमेव श्रुतज्ञानावरणं संक्रमयति ।
४. स्थित्यनुभागयोवं हत्करणमुद्वर्तना ।
५. तयोरेव ह्रस्वीकरणमपवर्तना ।
६. उद्वर्त्यते प्राबल्येन प्रभूतीक्रियते स्थित्यादि यया जीववीर्यविशेषपरिणत्या सोइर्तना, अपवत्यंते ह्रस्वीक्रियते स्थित्यादि यया सा अपवर्तना ।
७. कर्मपुद्गलानामकालप्राप्तानामुदयावलिकायां प्रवेशनमुदीरणा ।
८. अनुदयप्राप्तं सत्कर्मदलिकमुदीर्यत उदयावलिकायां प्रवेश्यते यया सा उदीरणा ।
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