________________
कर्मप्रकृति का सिंहावलोकन
प्रस्तुत ग्रंथ में जैनदर्शन के प्रमुख सिद्धान्त कर्मवाद की सविस्तृत विवेचना की गई है ।
ग्रन्थ का नामोल्लेख ग्रन्थकार द्वारा सत्ताप्रकरण की ५६ वीं गाथा में हुआ है । यथा--'इयकम्मपगडीओ . . . . . . .' इस कर्मप्रकृति · · · · · · · । इस ग्रन्थ का संकलन आग्रायणीय नामक द्वितीय पूर्व के कर्मप्रकृति नामक प्राभूत से हुआ है । इसलिये इसका नामांकन भी कर्मप्रकृति प्रकरण रखा गया है। इसमें ४७५ गाथाएं हैं। यहाँ पर ग्रन्थ के विषयवर्णनक्रम और कर्ता आदि के विषय में कुछ विचार प्रस्तुत हैं।
ग्रन्थकार ने मंगलाचरण के रूप में "सिद्ध सिद्धत्थ सुयं . . . . . .' गाथा के द्वारा अनन्त सिद्धों को तथा सिद्धार्थ-सुत (पुत्र) चरम तीर्थंकर भगवान महावीर आदि को नमस्कार किया है । तदनन्तर कर्म-सम्बन्धी करणाष्टक और उदय, सत्ता के वर्णन करने का संकल्प लिया है।
करणाष्टक--(१) बंधनकरण, (२) संक्रमणकरण, (३) उद्वर्तनाकरण, (४) अपवर्तनाकरण, (५) उदीरणाकरण, (६) उपशमनाकरण, (७) निधत्तिकरण, (८) निकाचनाकरण ।
बंधनकरण-आत्मा में योग और कषाय द्वारा सबसे पहले कर्मों का बंधन होता है, तदनन्तर बंधे हुए कर्मों में संक्रमण, उद्वर्तन, अपवर्तना आदि प्रक्रियाएं होती हैं। इसलिये सर्वप्रथम बंधनकरण पर विचार किया गया है। कर्मपुद्गलों का जीवप्रदेश के साथ अग्नि एवं अयोगोलक (लोहपिण्ड) की तरह अन्योन्यानुगम-परस्पर संबंधित हो जाना या क्षीर-नीर की तरह मिल जाना बंध है।'
अष्ट कर्मों का जिस वीर्य विशेष के द्वारा बंधन होता है, उसे बंधनकरण कहते हैं ।
आत्मप्रदेशों के साथ कर्म वर्गणाओं का संबंध योग के द्वारा होता है। सलेश्यजीव की प्रवृत्तिविशेष को योग कहते हैं । ग्रन्थकार ने निम्नलिखित दस द्वारों से योग की विवेचना की है-१ अविभाग, २. वर्गणा, ३ स्पर्धक, ४ अन्तर, ५ स्थान, ६ अनन्तरोपनिधा, ७ परंपरोपनिधा, ८ वृद्धि, ९ समय, १० जीवाल्पबहुत्वप्ररूपणा।
जीव के द्वारा योगशक्ति से ग्रहीत कर्मदलिकों में प्रकृतिबंध, स्थितिबंध, अनुभागबंध, प्रदेशबंध का बंधन एक साथ होता है, किन्तु उनका युगपद् वर्णन संभवित नहीं है, क्योंकि वाचाप्रवृति क्रमशः होती है। अत: सर्वप्रथम योग की प्रमुखता से प्रकृतिबंध और प्रदेशबंध का, ततश्च योगसहकारी लेश्याजनित अध्यवसाय से उत्पन्न रसबंध का और काषायिक अध्यवसायजनित स्थितिबंध का विवेचन किया गया है ।
प्रकृतिबंध प्रदेशबंध--के अन्तर्गत २६ वर्गणाओं का स्वरूप, स्नेहप्रत्ययस्पर्धक, नामप्रत्ययस्पर्धक, प्रयोगप्रत्ययस्पर्धक का विवेचन, मूलोत्तर प्रकृतियों में दलिकविभाग, प्रदेशाल्पबहुत्व, साद्यादिप्ररूपणा का मुख्यतया विवेचन किया गया है ।
अनुभागबंध-अविभागादि प्ररूपणा, षटस्थानप्ररूपणा एवं उसके २४ अनुयोगद्वार, अनुभागस्थानों में जीवों को आश्रित करके अध्यवसायस्थानों में अनुभागस्थान आदि का विवेचन किया गया है ।
स्थितिबंध-स्थितिस्थान, संक्लेश-विशुद्धिस्थान, जघन्य-उत्कृष्ट कर्मप्रकृतियों की स्थिति, अबाधा आदि, निषेकप्ररूपणा, अबाधाकंडक आदि प्ररूपणा, स्थितिबंध-अध्यवसायस्थान प्ररूपणा में परंपरोपनिधादिप्ररूपणा, समुदाहारादि तथा स्थितिबंध में साद्यादिप्ररूपणा आदि का विवेचन किया गया है। इस प्रकार बंधनकरण में
(१) बंधो नाम कर्मपुद्गलानां जीवप्रदेशः सह वह्नययःपिंडवदन्योऽन्यानुगमः। (२) बध्यतेऽष्टप्रकारं कर्म येन तद्बन्धनं ।