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शतक -- इस ग्रन्थ के कर्ता शिवशर्मसूरि हैं। इस पर तीन भाष्य, एक चूर्णि और तीन टीकाएं रचित हैं । दो भाष्य तो लघु हैं, बृहद् भाष्य के कर्ता चक्रेश्वरसूरि हैं । चूर्णिकार का नाम अज्ञात है। तीन टीकाएं मलधारी हेमचन्द्र, उदयप्रभसूरि एवं गुणरत्नसूरि द्वारा रची गई हैं ।
सप्ततिका - इस ग्रन्थ के कर्ता अज्ञात हैं । प्रचलित परम्परानुसार चन्द्रर्षिमहत्तर माने जाते हैं। शिवशर्मसूरि को भी इसके रचयिता मानने की संभावना भी अभिव्यक्त होती है । मूल ग्रन्थ में ७५ गाथाएं हैं। इस पर अभयदेवसूरि कृत भाष्य, अज्ञातकर्तक चूर्णि चन्द्रषिमहत्तर कृत प्राकृतवृत्ति मलयगिरिकृत टीका, मेरुतुंगसूरिकृत भाष्यवृत्त कामदेवकृत टिप्पण और गुणरत्नसूरिकृत अवचूरि है। प्रकाशित भाष्यमान क्रमश: १९१, ३७८० श्लोकप्रमाण है ।
गोम्मटसार -- इसके रचयिता नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती हैं। इसका जीवकांड और कर्मकांड के रूप में विभक्तिकरण । जीवकांड में ७३३ और कर्मकांड में ९७२ गाथायें हैं । कुल १७०५ गाथाएं हैं। इसका रचनाकाल विक्रम की ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी है ।
जीवकांड में जीवस्थान, क्षुद्रबंध, बंधस्वामी, वेदनाखंड और वर्गणाखंड, इन पांच विषयों पर विवेचन किया गया है । जीवस्थान, गुणस्थान, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, चौदह मार्गणा, उपयोग, इन बीस अधिकारों के द्वारा जीव की विविध अवस्थाओं का विवेचन किया गया है।
कर्मकाण्ड में कर्म सम्बन्धी निम्नांकित ९ (नौ) प्रकरण प्रतिपादित हैं-- १. प्रकृतिसमुत्कीर्तन, २. बंधोदयसत्व, ३. सत्वस्थानभंग, ४. त्रिचूलिका, ५. स्थानसमुत्कीर्तन, ६. भावचूलिका, ८. त्रिकरणचूलिका, ९. कर्मस्थितिरचना ।
इस पर चामुण्डरायकृत कन्नड़ टीका है। इसी के आधार पर केशववर्णी द्वारा संस्कृत टीका का प्रणयन किया गया है । मंदप्रबोधिनी नामक टीका अभयचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीकृत है । उपर्युक्त दोनों टीकाओं के आधार पर पं. टोडरमल्ल द्वारा सम्यक्ज्ञानचन्द्रिका नामक हिन्दी व्याख्या लिखी गई ।
लब्धिसार — इसके रचयिता नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती हैं। गोम्मटसार में जीव और कर्म पर विवेचन लिखा गया है । अतः इसमें कर्ममुक्ति के उपायों को ( अपने दृष्टिकोण से ) बतलाया है। इसमें ६४९ गाथाएं है । जिसमें २६१ गाथाएं क्षपणासार की हैं। दर्शनलब्धि चारित्रलब्धि और क्षायिकचारित्र – इन तीन प्रकरणों द्वारा इसका विवेचन किया गया है । दर्शनलब्धि प्रकरण में १. क्षयोपशमलब्धि २. विशुद्धलब्धि ३. देशनालब्धि ४. प्रायोग्यलब्धि ५. करणलब्धि, इन पांचों लब्धियों का तथा चारित्रलब्धि प्रकरण में देशचारित्र और सकलचारित्र का विवेचन किया गया है । क्षायिकचारित्र ( क्षपणासार) में चारित्रमोह की क्षपणा का सविस्तृत विवेचन किया है । तत्सम्बन्धित अन्य विषयों पर भी विवेचन मिलता है ।
इस पर केशववर्णी ने संस्कृत में और पं. टोडरमल्ल द्वारा हिन्दी में व्याख्या की गई है। पं. टोडरमल्ल की व्याख्या चारित्रलब्धि प्रकरण तक संस्कृत टीकानुसार एवं क्षायिकचारित्र ( क्षपणासार) की व्याख्या माधवचन्द्रकृत गद्यात्मक व्याख्यानुसार मिलती है ।
सार्धशतक — इसके रचयिता अभयदेवसूरि के शिष्य जिनवल्लभसूरि हैं। इसमें १५५ गाथाएं हैं। इस पर अज्ञातकर्तृक भाष्य, चन्द्रसूरिकृत चूर्णि, चक्रेश्वरसूरिकृत प्राकृत वृत्ति, धनेश्वरसूरिकृत टीका, अज्ञातकर्तृ' क वृत्ति, टिप्पण आदि का प्रणयन हुआ है ।
नवीन कर्मग्रन्थ
प्राचीन पंच कर्मग्रन्थों के आधार पर देवेन्द्रसूरि ने नवीन पंच कर्मग्रन्थों का प्रणयन किया है । प्राचीन कर्मग्रन्थों का सार देते हुए किन्हीं - किन्हीं स्थलों पर नवीन विषय भी विवेचित किये हैं । नामकरण एवं भाषा में भी प्राचीन कर्मग्रन्थों का अनुसरण किया गया है । गाथाओं की रचना आर्या छन्द में हुई है ।
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