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है, ऐसा प्रमाण मिलता है। तदनन्तर नये ग्रन्थों का आविष्करण हुआ, जिन का समावेश प्राकरणिक ग्रन्थों में होता है ।
पंचसंग्रह — इस ग्रन्थ के प्रणयनकर्ता आचार्य चन्द्रपि महत्तर थे। इनके गच्छ आदि का विशेष वर्णन उपलब्ध नहीं होता । इस ग्रन्थ में आचार्य मलयगिरि विरचित वृत्ति के अनुसार पाँच द्वारों का वर्णन मिलता है, जिनके निम्न नाम हैं-
१. शतक, २. सप्ततिका, ३. कषायत्राभूत, ४. सत्कर्म और ५. कर्मप्रकृति इनका समय नौवीं या दसवीं शताब्दी संभवित है।
इस ग्रन्थ में लगभग १००० गाथाएं हैं जिनमें योग, उपयोग, गुणस्थान, कर्मबन्ध, बंधहेतु, उदय, सत्ता, बंधनादि आठ करणों का विवेचन किया गया है। स्वोपज्ञ वृत्ति के अतिरिक्त आचार्य मलयगिरि ने १८८५० ( अठारह हजार आठ सौ पचास ) श्लोक प्रमाण एवं आचार्य वामदेव ने २५०० श्लोक प्रमाण दीपक नामक टीका ग्रन्थों की भी रचना की है ।
दिगम्बराचार्य अमितगति ने पंचसंग्रह नामक संस्कृत में गद्य-पद्यात्मक ग्रन्थ की रचना की है। जिसका समय वि. सं. १०७३ का है। यह ग्रन्थ गोम्मटसार का संस्कृत रूपान्तरण जैसा प्रतीत होता है। इसमें पांच प्रकरण हैं । जिनकी श्लोक संख्या कुल १४५६ प्रमाण है । १००० श्लोक प्रमाण गद्यभाग है ।
प्राकृत में भी पंचसंग्रह का प्रणयन हुआ है । ग्रन्थकार का नाम भाष्यकार का नाम, समय आदि अज्ञात है । इसमें गाथाएं १३२४ हैं । गद्यभाग ५०० श्लोक प्रमाण है ।
प्राचीन षट् कर्मग्रन्थ देवेन्द्रसूरिकृत कर्मग्रन्थ नवीन संज्ञा में अभिव्यंजित किये जाते हैं, क्योंकि इनके आधारभूत प्राचीन कर्मग्रन्थ हैं जिनकी रचना भिन्न-भिन्न आचार्यों द्वारा हुई है। समय भी भिन्न-भिन्न है। इन प्राचीन कर्मग्रन्थों के नाम इस प्रकार हैं-
१. कर्मविपाक, २. कर्मस्तव, ३. बंधस्वामित्व ४ षडशीति, ५. शतक, ६. सप्ततिका
कर्मविपाक इसके कर्ता गर्ग है। इनका समय विक्रम की दसवीं शताब्दी संभवित है। १६८ गाथाएं ग्रन्थ में हैं। इस पर ३ [ तीन ] टीकाएं लिखी गई हैं। परमानन्दसूरिकृत वृत्ति, उदयप्रभसूरिकृत टिप्पण, एक अज्ञातकं क । व्याख्या । इन टीका ग्रन्थों का प्रमाण क्रमशः १२२, १००० तथा ५२० श्लोक है। इनका रचना काल विक्रम की बारहवीं, तेरहवीं शताब्दी संभवित है ।
कर्मस्तव -- इस ग्रन्थ के कर्ता अज्ञात हैं, ५७ गाथाएं हैं। इस पर एक भाष्य और दो टीकाएं लिखी गई हैं। भाष्यकारों के नाम भी अज्ञात है। भाष्यप्रमाण क्रमशः २४ और ३२ गाथा प्रमाण है। टीकाएं - एक टीका तो गोविन्दाचार्यकृत १०९० श्लोकप्रमाण है। दूसरी टीका उदयप्रभसूरि कृत टिप्पण के रूप में २९२ श्लोक
प्रमाण है ।
बंधस्वामित्व -- इसके कर्ता भी अज्ञात हैं । यह ग्रन्थ ५४ श्लोकप्रमाण है । हरिभद्रसूरिकृत वृति ५६० श्लोक -: प्रमाण है। जिसका रचना काल संवत् ११७२ का है।
षडशीति--इसके निर्माता जिनवल्लभगणि हैं । रचनाकाल विक्रम की बारहवीं शताब्दी है । गाथा संख्या ८६ है । प्रणयन हुआ है । टीकाकारों के रूप में हरिभद्रसूरि और २१४० श्लोकप्रमाण हैं ।
इस पर दो अज्ञातकर्तृक भाष्य तथा अनेक टीकाओं का और मलयगिरि की प्रसिद्धि है। इनकी टीकाएं क्रमशः ८५०
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