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________________ १९० कर्मप्रकृति प्रगणनाप्ररूपणा ठिइबंधे ठितिबंधे, अन्नवसाणाणसंखया लोगा। हस्सा विसेसवुड्ढी, आऊणमसंखगुणवुड्ढी ॥७॥ शब्दार्थ-ठिइबंधे ठितिबंधे-स्थितिबंध, स्थितिबंध में, अन्झवसाणाणसंखया-अध्यवसायस्थान असंख्यात, लोगा-लोकाकाश प्रदेश, हस्सा-जघन्य, अल्प, विसेसवुड्ढी-विशेषवृद्धि, आऊणं-आयु में, असंखगुणवुड्ढी-असंख्यातगुण वृद्धि। गाथार्थ-स्थितिबंध, स्थितिबंध अर्थात् प्रत्येक स्थितिबंध में अध्यवसायस्थान' असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण होते हैं। वे जघन्य स्थितिबंध में सबसे कम होते हैं और उसके बाद आगे के द्वितीयादि स्थितिस्थानों में विशेषवृद्धि तथा आयुकर्म में असंख्यात गुणवृद्धि होती है। विशेषार्थ-यहाँ सभी कर्मों की जघन्य स्थिति से परे उत्कृष्ट स्थिति के चरम समय तक जितने समय होते हैं, उतने स्थितिस्थान जघन्य स्थिति सहित प्रत्येक कर्म के होते हैं। एक-एक स्थितिस्थान के बांधे जाने में उसके बंध के कारणभूत काषायिक अध्यवसाय नाना जीवों की अपेक्षा असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण जानना चाहिये। यहां दो प्रकार की प्ररूपणा है-अनन्तरोपनिधा रूप और परंपरोपनिधा रूप। इनमें से पहले अनन्तरोपनिधा से प्ररूपणा करते हैं _ 'हस्सा विसेसवुड्ढी' अर्थात् आयुकर्म को छोड़कर शेष कर्मों के ह्रस्व-जघन्य स्थितिबंध से परे द्वितीयादिक स्थितिस्थानबंधों में विशेषवृद्धि यानी विशेषाधिक वृद्धि जानना चाहिये। जैसे-ज्ञानावरण की जघन्य स्थिति में उस बंध के कारणभूत अध्यवसाय नाना जीवों की अपेक्षा असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण होते हैं। वे अन्य की अपेक्षा सबसे कम होते हैं। उनसे द्वितीय स्थिति में विशेषाधिक होते हैं, उनसे भी तृतीय स्थिति में विशेषाधिक होते हैं। इस प्रकार , उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त होने तक कहना चाहिये। इसी प्रकार सभी कर्मों में भी कहना चाहिये। लेकिन। 'आऊणमसंखगुणवुड्ढी' अर्थात आयकर्म के चारों भेदों में जघन्य स्थिति से लेकर प्रत्येक स्थितिबंध पर असंख्यात गुणी वृद्धि कहना चाहिये। जैसे-आयु की जघन्य स्थिति में उसके बंध के कारणभूत अध्यवसाय असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण होते हैं, जो सबसे कम हैं। उनसे द्वितीय स्थिति में असंख्यात गुणित होते हैं। उनसे भी ततीय स्थिति में असंख्यात गुणित होते हैं। इस प्रकार उत्कृष्ट स्थिति तक कहना चाहिये। .इस प्रकार अनन्तरोपनिषा से प्ररूपणा की। अब परंपरोपनिधा से उनकी प्ररूपणा करते हैं१. यहाँ अध्यवसाय शब्द का अर्थ स्थितिबंधाध्यवसायस्थान समझना चाहिये, किन्तु अनुभागबंधाव्यवसायस्थान नहीं ।
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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