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बंधनकरण
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सरलता से समझने के लिये जिसका प्रारूप इस प्रकार हैक्रम स्थाननाम अल्पबहुत्व
प्रमाण
अल्प
आवली के असंख्यातवें भाग के समय प्रमाण पूर्ववत् (अर्थात् अल्प) उससे आवली के असंख्यातवें भाग के समय प्रमाण असंख्यातगुण , अन्तर्मुहूर्त प्रमाण विशेषाधिक असंख्यातगुण ,
१. अबाधास्थान २. कंडकस्थान ३. जघन्य अबाधा ४. उत्कृष्ट अबाधा ५. द्विगुणहानिस्थान ६. निषेकस्थान ७. अर्थकंडक ८. स्थितिस्थान ९. जघन्य स्थितिबंध १०. उत्कृष्ट स्थितिबंध
पल्योपम के असंख्यातवें भागगत समयप्रमाण
सागरोपम, पल्योपम का असंख्यातवां भाग हीन विशेषाधिक अर्थात पल्योपम १सागरोपम यावत् १००० सागरोपम के असंख्यातवें भाग से अधिक
इस प्रकार जीवभेदों में अल्पवहुत्व का कथन समझना चाहिये।
इन प्रारूपों में आगत अर्थकंडक असंख्यात गुणा कैसे होता है, समझ नहीं सके हैं। विद्वज्जनों से इसकी स्पष्टता की अपेक्षा है। १२ जीवभेदों के प्रारूपों में मुख्यतया एकेन्द्रिय की अपेक्षा अल्पबहुत्व समझना चाहिये। स्थितिबंध के अध्यवसायस्थानों की प्ररूपणा
अब स्थितिबंध के अध्यवसायस्थानों की प्ररूपणा करते हैं। उसमें तीन अनुयोगद्वार हैं। वे इस प्रकार हैं-(१) स्थितिसमुदाहार' (२) प्रकृतिसमुदाहार' और (३) जीवसमुदाहार । प्रतिपादन, व्याख्या करने को समुदाहार कहते हैं। इनमें से भी स्थितिसमुदाहार में तीन अनुयोगद्वार होते हैं, यथा-(१) प्रगणना' (२) अनुकृष्टि और (३) तीव्रमंदता । इनमें से पहले प्रगणना की प्ररूपणा करते हैं-- ... . .. १. स्थितिस्थानों के विषय में स्थितिबंधाध्यवसायस्थान सम्बन्धी व्याख्या करने को स्थितिसमुदाहार कहते हैं । .... २. कर्मप्रकृतियों के विषय में स्थितिबंधाध्यवसायों की प्ररूपणा करना प्रकृतिसमुदाहार है । ... . ३. जीव के विषय में स्थितिबंधाध्यवसायों की व्याख्या करना जीवसमुदाहार कहलाता है । .. ४. प्रत्येक स्थितिस्थान में स्थितिबंधाध्यवसायों की गणना करना प्रगणना है। ५. कौन से स्थितिस्थान में किस स्थितिस्थानसम्बन्धी कितने स्थितिबंधाध्यवसायस्थान कितने स्थितिस्थानों में
(कब तक) विभक्त किये जाते हैं, उसे अनुकृष्टि कहते हैं । ६. किन स्थितिस्थानों के विषय में स्थितिबंधाध्यवसायों की परस्पर तीवता-मंदता कितनी गणी कहना, उसे तीवमंदता कहते हैं।
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