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है और रस के रूप में परिवर्तित हो जाता है तब उसका विभागीकरण होता है। उसकी शक्ति का कुछ-कुछ
भाग आंख, कान, नाक आदि इन्द्रियों को प्राप्त होता है । मुख्यतया तो दुग्ध उदरस्थ ही होता है । इसी प्रकार मन, वचन व काया के योगों का परिस्पन्दन जिस कर्म के परिणामों की मुख्यता से हुआ है, उस कर्म को कर्मपरमाणुओं का उसके अनुपात से भाग प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त अवशेष कर्मों को भी यथास्थान यथायोग्य भाग मिलता है । इसीलिये प्रतिसमय आत्मा के साथ सप्त- अष्ट कर्मों के बन्धन का विधान किया गया है । कर्म का विभागीकरण
मूल में तो कर्म एक ही प्रकार का होता है, तथापि जिस रूप में वह आत्मिक विकास का अवरोधक बनता है, तदनुरूप उसका विभाग कर दिया जाता है। कर्म के मुख्य विभाग आठ किये गये हैं
१ ज्ञानावरणीय, २ दर्शनावरणीय, ३ वेदनीय, ४ मोहनीय, ५ आयु, ६ नाम, ७ गोत्र, ८ अन्तराय ।
उपर्युक्त आठ कर्मों में मोहनीय कर्म प्रमुख है । आत्मस्वरूप को आवृत करने की क्षमता, प्रभावशीलता, स्थितिकाल आदि अन्य कर्मों की अपेक्षा मोहनीय कर्म का अधिक है। मोहनीय कर्म पूरे कर्मवृक्ष का मूल कहा जाता है । जिस प्रकार मूल को उखाड़ देने से वृक्ष टिक नहीं सकता, उसी प्रकार मोहनीय कर्म का क्षय ( नाश ) कर देने पर अन्य कर्म भी नहीं टिक सकते। मोहनीय कर्म पर विजय प्राप्त करने पर अन्य कर्मों का क्षय सरलता से किया जा सकता है ।
अष्ट कर्मों में चार कर्म घातिक और चार कर्म अघातिक हैं । ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तरायकर्मघातिक तथा वेदनीय, आयु, नाम, गोत्र कर्म अघातिक हैं । जो आत्मा के मूल गुणों का घात ( आच्छादित) करते हैं वे घातिक और जो आत्मा के मूल गुणों का घात नहीं करते वे अघातिक कर्म कहलाते हैं ।
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पातिक कर्म भी दो प्रकार के होते हैं देशघाती और सर्वघाती सर्वघाती पूर्णतया आत्मगुणों को आवरित कर देते हैं। जबकि देशघाती किसी एक भाग को आवरित करते हैं। सर्वघाती से तात्पर्य मात्र गुणों के प्राकट्य को रोकना है, नाश नहीं । आत्मिक गुण कितने ही आवृत किये जायें तथापि चैतन्य का ज्ञापक अंश सदा अनावृत रहता है।
अघातिक कर्म भुने हुए बीज के समान हैं, (दीर्घ स्थिति वाले) नवीन कर्मों को उत्पन्न बिलग हो जाते हैं ।
उसी प्रकार जो कर्म आत्मा की ज्ञान
घाती कर्म को उस बीज के समान कहा जा सकता है, जिसमें अंकुरण की शक्ति है। जिन कमों के कारण नवीन कर्मों का बंध होता रहता है, कर्मपरंपरा विच्छिन्न नहीं होती। जिनमें नवीन अंकुरण की शक्ति नहीं है । उसी प्रकार अघातिक कर्म नहीं करते, स्थिति के परिपाक के अनुसार अपना फल देकर आत्मा से ज्ञानावरणीय जिस प्रकार बादल सूर्य को आवरित करता है शक्ति को आवरित करता है, उसे ज्ञानावरणीय कर्म कहते हैं। बादल का आवरण सूर्य को कितना ही आवरित कर दे, तथापि इतना प्रकाश तो अवशेष रहता ही है, जिससे दिन और रात का ज्ञान हो सके। उसी प्रकार ज्ञानावरणीय कर्म से आत्मा की ज्ञान शक्ति कितनी ही आच्छादित कर दी जाये तथापि ज्ञान का अनंतवां भाग तो उद्घाटित ही रहता है, जिससे जीवत्व का ज्ञान हो सके । अन्यथा आत्मा अनात्मा हो जाएगी । दर्शनावरणीय जिस प्रकार द्वारपाल राजा के दर्शन में बाधक बनता है, दर्शन नहीं करने देता। उसी प्रकार जो कर्म आत्मा की दर्शनशक्ति को आच्छादित करता है। अर्थात् ज्ञान से पूर्व होने वाले वस्तु के सामान्य बोध को दर्शन शक्ति को आवरित करने वाला कर्म दर्शनावरणीय है ।
वेदनीय - - जिस कर्म के द्वारा आत्मा सुख और दुःख का अनुभव करें, उसे वेदनीय कर्म कहते हैं । वह सुख भी मधुलिप्त तलवार को चाटने के समान अन्ततः दुःखप्रद ही है।
मोहनीय-- जिस प्रकार मादक वस्तुओं के सेवन से व्यक्ति बेभान बन जाता है, हिताहित को भूल जाता है, विवेकशक्ति खो बैठता है । इसी प्रकार मोहनीय कर्म के उदय से प्राणी बेभान हो जाता है ।
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