SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 185
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३२ कर्मप्रकृति हानि वाले स्थान यथोक्त प्रमाण अर्थात् आवलिका के असंख्यातवें भागप्रमाण कैसे हो सकते हैं ? इस प्रकार तो एक भी द्विगुणवृद्धि अथवा द्विगुणहानि प्राप्त नहीं होती है।' उत्तर--इसमें कोई दोष नहीं है। क्योंकि पहले आवलिका के असंख्यातवें भागमात्र स्थान त्रस जीवों के द्वारा निरन्तर बध्यमान रूप से प्राप्त होते हैं, यह कहा गया है, किन्तु यहां पर तो आवलिका के असंख्यातवें भाग मात्र स्थानों से परवर्ती बध्यमान स्थान वर्तमान में प्राप्त नहीं होते हैं, तथापि कदाचित् प्राप्त होते हैं और उन स्थानों में जीव उत्कृष्टपद में क्रम से विशेषाधिक पाये जाते हैं । इसलिए यथोक्त प्रमाण वाले द्विगुणवृद्धि और द्विगुणहानि वाले स्थान विरोध को प्राप्त नहीं होते हैं। . इतर अर्थात् स्थावर जीवों में त्रसकायिक संबंधी एक अन्तर से असंख्यात गुणित नाना रूप अन्तर अर्थात् द्विगुणवृद्धि और द्विगुणहानि वाले स्थान होते हैं । उक्त कथन का अभिप्राय यह है कि वसकायिक जीवों के दो द्विगुणवृद्धि अथवा दो द्विगुणहानि के एक अपान्तराल में जिसने स्थान होते हैं, उनसे असंख्यात गुणित द्विगुणवृद्धि और द्विगुणहानि वाले स्थान स्थावर जीवों के होते हैं। त्रस जीवों में द्विगुणवृद्धि और द्विगुणहानि वाले स्थान अल्प होते हैं। एक द्विगुणवृद्धि अथवा द्विगुणहानि के अपान्तराल से जो स्थान होते हैं, वे उनसे असंख्यातगुणित होते हैं । स्थावर जीवों के तो दो द्विगुणवृद्धि अथवा दो द्विगुणहानि इन दोनों के ही अपान्तराल में जो स्थान होते है, वे अल्प हैं और द्विगुणवृद्धि तथा द्विगुणहानि वाले अन्तराल स्थान उनसे असंख्यात गुणित होते हैं, यह वृद्धिप्ररूपणा की परंपरोपनिधा का अभिप्राय है। - इस प्रकार वृद्धिप्ररूपणा का विवेचन किया गया। अब यवमध्यप्ररूपणा करते हैं। यवमध्यप्ररूपणा यवमध्य के अष्टसामयिक अनुभागबंधस्थान शेष स्थानों की अपेक्षा असंख्यातवें भाग मात्र होते हैं तथा यवमध्य के अधोवर्ती स्थान अल्प हैं और उनसे यवमध्य के उपरिवर्ती स्थान असंख्यात गुणित होते हैं। कहा भी है-- १. उक्त कथन का आशय यह है कि यदि ४५वीं गाथा के अनुसार त्रस जीवों में अनुभागस्थानों की प्राप्ति मानें तो एक भी अन्तराल प्राप्त नहीं होगा। क्योंकि एक अन्तराल में अनुभागस्थान तो असंख्यातलोक प्रमाण कहे हैं और पूर्व में सजीव में आवलिका के असंख्यातभागप्रमाण अनुभागस्थान कहे हैं। २. उक्त कथन का आशय यह है कि त्रसकायिक जीवों के दो द्विगुणवद्धि अथवा दो द्विगुणहानि के एक अन्तर में ___जितने अनुभागस्थान हैं, उनसे असंख्यातगुण अन्तर स्थावरकाय जीवों में प्राप्त होते हैं। ..... ३. उक्त परंपरोपनिधा के विवेचन का सारांश यह है कि जघन्य अनुभागस्थानबंधक जीवों की अपेक्षा उस * स्थान से असंख्यात लोकाकाशप्रदेशप्रमीण स्थान का उल्लंघन करने के अनन्तर प्राप्त स्थान में बंधक रूप से पाये ... जाने वाले जीव दुगने, उससे आगे उतने स्थानों का अतिक्रमण करने के बाद. दुगने, इस प्रकार यवमध्य ... (अष्टसामयिषस्थानों) तक कहना चाहिये और उससे आगे उतने-उतने स्थानों के अतिक्रमण से द्विगुणहीन, द्विगुणहीन करते हुए उत्कृष्ट स्थान तक जानना। त्रस जीवों में द्विगुण हानि और वृद्धि के स्थान आवलिका के असंख्यातवें भाग प्रमाण और स्थावर जीवों में असंख्यात लोकाकाशप्रदेश से असंख्यात गुण हैं।
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy