________________
बंधनकरण
गाथार्थ-असंख्यात लोकप्रमाण स्थानों का उल्लंघन कर जीव दुगुने पाये जाते हैं। यह अनन्तर-अनन्तर का क्रम यवमध्य तक जानना चाहिये । उसके आगे दुगुणहीन जीव प्राप्त होते हैं। इस प्रकार यह क्रम उत्कृष्ट अनुभागबंधस्थान तक जानना चाहिये।
विशेषार्थ-जघन्य अनुभागबंधस्थान का बंध करने वाले से आगे अर्थात् जघन्य अनुभागबंधस्थान से आरंभ करके असंख्यात लोकाकाशप्रदेशप्रमाण स्थानों का उल्लंघन करके जो आगे का अनभागबंधस्थान प्राप्त होता है, उसके बंध करने वाले जीव 'द्विगुणवृद्धा' द्विगुणवृद्धि वाले यानी दुगुने (द्विगुण जितने अधिक) होते हैं। तदनन्तर फिर उतने ही अनुभागबंधस्थानों का अतिक्रमण करके जो अग्रिम अनुभागबंधस्थान प्राप्त होता है, उसके बंधक भी द्विगुणवृद्धि वाले होते हैं। इस प्रकार यह द्विगुणवृद्धि तब तक कहना चाहिये, जब तक यवमध्य प्राप्त होता है। उससे आगे असंख्यात लोकाकाशप्रदेशप्रमाण स्थानों का उल्लंघन करके जो आगे का अनुभागबंधस्थान प्राप्त होता है, उसके बंधक जीव पिछले कहे गये जीवों से द्विगुणहीन, अर्थात् आधे होते हैं। तदनन्तर, फिर उतने ही स्थानों का उल्लंघन करके प्राप्त होने वाले ऊपर के अनुभागबंधस्थान के बंधक जीव द्विगुणहीन अर्थात् आधे होते हैं। इस प्रकार यह द्विगुणहानि अपने-अपने योग्य सर्वोत्कृष्ट अनुभागबंधस्थान प्राप्त होने तक कहना चाहिये। _ अब द्विगुण वृद्धि-हानिरूप स्थान कितने हैं, इसको स्पष्ट करते हैं
नाणंतराणि आवलिय असंखभागो तसेसु इयरेसुं।
एगंतरा असंखिय गुणाइं ठाणंतराई तु ॥४८॥ शब्दार्थ--नाणंतराणि-नाना प्रकार के अन्तरस्थान, आवलिय-आवलिका के, असंखभागो-असंख्यातवें भाग प्रमाण, तसेसु-त्रसजीवों में, इयरेसुं-इतर (स्थावर) जीवों में, एगंतरा-एक अन्तर के स्थानों से, असंखियगुणाई-असंख्यातगुण, ठाणंतराइं-अन्तर वाले स्थान, तु-और।
- गाथार्थ-वसकाय जीवों में आवलिका के असंख्यातवें भाग प्रमाण अन्तर (वृद्धि और हानि के अपान्तराल में विद्यमान) प्राप्त होते हैं और स्थावर जीवों में एक अन्तर के स्थानों से असंख्यातगुण अन्तर प्राप्त होते हैं।
विशेषार्थ-नाना अन्तर अर्थात् नाना प्रकार के द्विगुणवृद्धि और द्विगुणहानि वाले अपान्तराल रूप जो स्थान हैं, वे त्रसकाय जीवों में आवलिका के असंख्यातवें भाग में जितने समय होते हैं, उतने प्रमाण होते हैं।'
प्रश्न-आवलिका के असंख्यातवें भाग मात्र ही अनुभागबंधस्थान वस जीवों के द्वारा निरन्तर बध्यमान प्राप्त होते हैं, यह पहले कहा गया है, तब फिर बस जीवों में द्विगुणवृद्धि और द्विगुण१. दो द्विगुणवृद्धि और दो द्विगुणहानि के जो अन्तराल होते हैं, उनमें असंख्यलोकप्रमाण अनुभागबंधस्थान
हैं, वैसे आवलिका के असंख्यातवें भाग प्रमाण अन्तरालों में जितने अनुभागबंधस्थान हैं, वे सब त्रस
जीवप्रायोग्य हैं। २. गाथा ४५ में।