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________________ कर्मप्रकृति ६७. वेदनीय और गोत्र कर्म-इसी प्रकार सातावेदनीय, असातावेदनीय का तथा उच्चगोत्र, नीचगोत्र का भी अल्पबहुत्व नहीं है। ८. अन्तरायकर्म-अन्तराय कर्म में जैसा अल्पबहुत्य उत्कृष्टपद में कहा है, वैसा ही जघन्यपद में भी जानना चाहिये । उत्कृष्ट, जघन्य प्रदेशाग्र होना कब संभव है ? । यहाँ यह जानना चाहिये कि जब जीव उत्कृष्ट योगस्थान में प्रवर्तता है और जब मूलप्रकृतियों तथा उत्तरप्रकृतियों का अल्पतर बंध करता है तथा जब संक्रमणकाल में अन्य प्रकृतियों के दलिकों का उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण होता है तब उत्कृष्ट प्रदेशाग्न संभव है। जिसका आशय यह है कि (१) उत्कृष्ट योग में वर्तमान जीव उत्कृष्ट प्रदेश ग्रहण करता है तथा (२) जब अल्पतर मूल प्रकृतियों का और उत्तर प्रकृतियों का बंध होता है तब शेष अबध्यमान प्रकृतियों से प्राप्त होने योग्य भाग भी उन बध्यमान प्रकृतियों को प्राप्त होता है तथा (३) जब अन्य प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमण के समय में विवक्षित बध्यमान प्रकृतियों में बहुत कर्मपुद्गल प्रवेश करते हैं । अतः इतने कारणों के होने पर उत्कृष्ट प्रदेशाग्र होना संभव है और इससे विपरीत दशा में जघन्य प्रदेशाग्र होता है ।' . . . इस प्रकार प्रकृतिबंध और प्रदेशबंध का कथन समाप्त हुआ । अब स्थितिबंध और अनुभागबंध के विवेचन का अवसर प्राप्त है। इनमें भी बहुवक्तव्य होने से सर्वप्रथम अनुभागबंध की प्ररूपणा करते है। ३. अनुभागबंध अनुभागबंध की प्ररूपणा के चौदह अनुयोगद्वार हैं, यथा- (१) अविभागप्ररूपणा, (२) वर्गणाप्ररूपणा, (३) स्पर्घकप्ररूपणा, (४) अन्तरप्ररूपणा, (५) स्थानप्ररूपणा, (६) कंडकप्ररूपणा, (७) षट्स्थानप्ररूपणा, (८) अधस्तनस्थानप्ररूपणा, (९) वृद्धिप्ररूपणा, (१०) समयप्ररूपणा, (११) यवमध्यप्ररूपणा, (१२) ओजोयुग्मप्ररूपणा, (१३) पर्यवसानप्ररूपणा, (१४) अल्पबहुत्वप्ररूपणा । इनमें से पहले अविभागप्ररूपणा का कथन करते हैं। १. अविभागप्ररूपणा गहणसमयम्मि जीवो, उप्पाएई गुणं सपच्चयो। सम्वजियाणंतगुणे, कम्मपएसेसु सव्वेसुं ॥२९॥ १. विवक्षित प्रकृति में अन्य प्रकृति के दलिकों के संक्रमण के समय। २. मूल और उत्तर प्रकृतियों में प्रदेशाग्र अल्पबहुत्व दर्शक सारिणी परिशिष्ट में देखिये। .. स्थिति के अनुसार भाग की प्राप्ति मूल प्रकृतियों में सम्भव है और उत्तर प्रकृतियों में हीनाधिक भाग की प्राप्ति में क्वचित् स्नेह, क्वचित् उस्कृष्टपदरूपता, क्वचित् जघन्यपद की वक्तव्यता जिन प्रकृतियों में भिन्न-भिन्न दिखती है, वहाँ उत्कृष्टपद और जघन्यपद रूप संयोगों की प्राप्ति और जहां संभव वक्तव्यता है, वहां स्नेह की विषमता रूप हेतु संभव है। परन्तु मात्र रस या स्थिति की विषमता से उत्तर प्रकृतियों की भाग प्राप्ति की विषमता संभव नहीं है।
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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