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________________ कर्मप्रकृति शब्दार्थ--एगसमयं-एक समय का, जहन्नं-जघन्य, ठाणाणप्पाणि-(योग)स्थान अल्प, अट्ठसमयाणि-आठ समय वाले, उभओ-दोनों ओर के, असंखगुणियाणि-असंख्य गुण, समयसो--समय से, ऊणन्यून, कम, ठाणाणि-स्थान। ___ गाथार्थ-समस्त योगस्थानों का जघन्य अवस्थान काल एक समय मात्र का है, आठ समय वाले.. योगस्थान अल्प हैं। तत्पश्चात् दोनों ओर एक-एक समय कम करते हुए योगस्थान असंख्यात गुणे हैं। विशेषार्थ--'उपर्युक्त समस्त योगस्थानों का जघन्यतः अवस्थानकाल एक समय है । जो अपर्याप्त सूक्ष्म निगोदिया सम्वन्धी असंख्यात योगस्थान हैं, उनका जघन्यत: और उत्कर्षत: अवस्थानकाल एक समय का है। प्रश्न--उत्कर्ष से भी उन योगस्थानों (अपर्याप्त सूक्ष्म निगोद सम्बन्धी असंख्यात योगस्थानों) का अवस्थान काल एक समय होने का क्या कारण है ? - उत्तर-इसका कारण यह है कि सभी अपर्याप्त जीवों के अपर्याप्त अवस्था में रहते हुए प्रतिक्षण असंख्यात गुणी योगवृद्धि होती है, ऐसा शास्त्रवचन है--'सव्वोवि अपज्जत्तगो पइयणमसंखगुणाए जोगवुड्ढोए वड्ढइत्ति । अतएव दूसरे समय में योग की असंख्यात गुणी वृद्धि होती है। इन अपर्याप्त योगस्थानों का अजघन्य, उत्कृष्ट अवस्थान काल एक समय का है । - इस प्रकार समय-प्ररूपणा का कथन किया गया । अव ठाणाणप्पाणि......इत्यादि पद से चार आदि समय वाले योगस्थानों के अल्पबहुत्व का कथन प्रारम्भ करते हैं - 'ठाणा . . . . समयाणि' अर्थात् आठ समय वाले योगस्थान सबसे अल्प होते हैं। उनकी अपेक्षा एक-एक समय से कम जो सप्त सामयिक आदि स्थान हैं, वे उभयतः अर्थात् पूर्वोत्तर दोनों पाश्वों में असंख्यात गुणे होते हैं। वे इस प्रकार कि आठ समय वाले योगस्थान चिरकाल स्थायी होने से अल्प ही प्राप्त होते हैं, उनसे उभयपार्श्ववर्ती सात समय वाले योगस्थान अल्प स्थिति वाले होने से असंख्यातगुणे होते हैं, किन्तु स्वस्थान में वे दोनों ही परस्पर समान संख्या वाले होते हैं। उनसे भी उभयपार्श्ववर्ती छह समय वाले योगस्थान असंख्यात गुणे होते हैं, किन्तु स्वस्थान में समान, तुल्यसंख्यक होते हैं। उनसे भी उभयपार्श्ववर्ती पांच समय वाले योगस्थान असंख्यात गुणे हैं, किन्तु स्वस्थान में वे समान हैं । उनसे भी उभयपार्श्ववर्ती चार समय वाले योगस्थान असंख्यात गुणे होते हैं, किन्तु स्वस्थान में वे तुल्य हैं। उनसे भी तीन समय वाले योगस्थान असंख्यात गुणे होते हैं, उनसे भी दो समय वाले योगस्थान असंख्यात गुणे होते हैं। १. अधिक स्थिति वाले योगस्थान अल्प होते हैं और न्यन स्थिति वाले योगस्थान अधिक, इस अपेक्षा उक्त कथन समझना चाहिये। २. योगस्थानों की उत्कृष्ट स्थिति का पूर्वभाग वृद्धि की अपेक्षा चार समय से प्रारम्भ होता है और हानि की __ अपेक्षा उत्तरभाग दो समय तक का है। इसलिये चार समय तक की स्थितियां तो उभयपार्श्ववर्ती हैं, किन्तु तीन .... और दो समय की स्थितियां मात्र उत्तरपार्श्ववर्ती ही हैं, इसलिए इन दोनों स्थितियों में उभयपार्श्ववर्तीपना एवं स्वस्थान में तुल्यता नहीं कही है।
SR No.032437
Book TitleKarm Prakruti Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year1982
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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