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बंधनकरण
शब्दार्थ--चउराई --चार समय से, जाव--तक, पर्यन्त, अट्ठगं-आठ समय, इत्तो-यहाँ से, जावतक, दुगं ति-दो तक, समयाणं-समय, पज्जत्तजहन्नाओ-पर्याप्त (सूक्ष्म निगोदिया जीव) के, जघन्य, जावुक्कोसं ति-उत्कृष्ट तक, उक्कोसो-उत्कृष्ट (काल) । - गाथार्थ--चार समय से लेकर आठ समय तक और उसके पश्चात् दो समय तक जीव अवस्थित पाये जाते हैं । यह क्रम पर्याप्त सूक्ष्म निगोदिया के जवन्य योगस्थान से लेकर यावत् उत्कृष्ट योगस्थान तक जानना चाहिये । यह उत्कृष्ट समय-प्ररूपणा है।
विशेषार्थ--अवस्थिति के नियामक समयों की संख्या चार है आदि में जिसके, वह चतुरादि वृद्धि कहलाती है। यह तव तक कहना चाहिये, जव तक आठ की संख्या प्राप्त हो । इससे आगे समयों की हानि यह पद भी जोड़ना चाहिये । यह हानि दो संख्या प्राप्त होने तक होती है । यहाँ चार की आदि रूप वद्धि पर्याप्त जघन्य से अर्थात पर्याप्त सक्ष्म निगोदिया सम्वन्धी जघन्य योगस्थान से आरम्भ कर आठ समय तक जानना चाहिये । इसके पश्चात् हानि होती है, वह भी तब तक, जब तक उत्कृष्ट योगस्थान प्राप्त होता है । यह उत्कृष्ट अवस्थिति काल है । अर्थवशात् इस प्रकार ही अक्षर-योजना करना चाहिये।
- उक्त कथन का यह भावार्थ है कि सब से अल्पवीर्य वाले पर्याप्त सूक्ष्म निगोदिया जीव के जघन्य योगस्थान से' आरम्भ करके क्रमशः श्रेणी के असंख्यातवें भागगत प्रदेशों की राशि प्रमाण जितने योगस्थान हैं, वे उत्कर्ष से चार समय तक अवस्थित पाये जाते हैं, उससे आगे जो उतने ही योगस्थान हैं वे उत्कर्ष से पांच समय तक, उससे आगे उतने ही योगस्थान उत्कर्ष से छह समय तक, उससे भी आगे उतने ही योगस्थान उत्कर्ष से सात समय तक और उससे भी आगे उतने ही योगस्थान उत्कर्ष से आठ समय तक अवस्थित पाये जाते हैं। इससे आगे जो क्रमशः श्रेणी के असंख्यातवें भागगत प्रदेशों के प्रमाण योगस्थान हैं, वे उत्कर्ष से सात समय तक, तदनन्तर उक्त संख्या वाले योगस्थान उत्कर्ष से छह समय तक अवस्थित पाये जाते हैं। इस प्रकार प्रतिलोम क्रम से तब तक कहना चाहिये जब तक कि अंतिम श्रेणी के असंख्यातवें भागगत प्रदेश प्रमाण योगस्थान उत्कर्ष से दो समय तक अवस्थित पाये जाते हैं ।
. इस प्रकार उत्कृष्ट अवस्थानकाल का प्रमाण है। अव जघन्य अवस्थानकाल' का प्रमाण एवं योगस्थान-अल्पवहुत्वप्ररूपणा करते हैं । जघन्य काल और योगस्थान-अल्पबहुत्वप्ररूपणा
एगसमयं जहन्नं, ठाणाणप्पाणि अट्ठ समयाणि । उभओ असंखगुणियाणि समयसो ऊण ठाणाणि ॥१३॥
१. अपर्याप्त-अवस्था (करण-अपर्याप्त-अवस्था) में सब जीवों के योग की अवश्य वृद्धि होती है। इसलिये चार आदि
की समय-प्ररूपणा पर्याप्त सूक्ष्म निगोदिया जीव के जघन्य योगस्थान से कही गई है। २. अवस्थित अर्थात एक जीव को वही योगस्थान इतने काल तक निरन्तर हो सकता है अथवा उस योगस्थान
में जीव उतने काल तक रह सकता है, तदनन्तर अवश्य ही योगान्तर हो जाता है। ..