________________
प्रकाशकीय निवेदन
जब शासननायक, चरम तीर्थंकर भगवान श्री महावीरस्वामी निर्वाण को प्राप्त हुए तब चतुर्थकालमें ३ वर्ष छ मास १५ दिन शेष रहे थे। उनके पश्चात् केवली, श्रुतकेवली व कई आचार्य भगवंतोंके द्वारा ६८३ वर्ष तक अंग और पूर्वका अंशरूप ज्ञान विद्यमान रहा था। तत्पश्चात् वह ज्ञान क्षीण होता गया, पर उसमें भी प्रायः अध्यात्मज्ञान तो विशेषतया लुप्त होता गया।
उस महत्त्वपूर्ण अध्यात्मज्ञानमय अंशरूप ज्ञानको वीरप्रभु और सीमंधरप्रभुके कृपामृतसे तथा पूर्व संस्कारके बलसे भगवान कुंदकुंदाचार्यदेवने चेतनवंत किया। फिरसे कालदोषवशात् वह ज्ञान क्षीण होता चला। अतः उनके १००० वर्ष बाद आचार्यदेव अमृतचन्द्रजी हुए। उन्होंने आचार्य कुंदकुंद भगवंतकी ज्ञान-गंगा को नवजीवन प्रदान किया। पुनः वह क्षीणताकी ओर जाने लगी व नहींवत सी रह गयी तो आचार्य अमृतचन्द्रदेवके १००० वर्ष पश्चात् पर परम पूज्य सद्गुरुदेव श्री कानजीस्वामी हुए, उन्होंने आचार्यदेव कुंदकुंद भगवंत व आचार्यदेव अमृतचन्द्र भगवंतके समयसार ग्रंथ व अन्यग्रंथोंके भावोंको पाकर पूर्व संस्कारके बल, उन ग्रंथोंके वचनोंके ऐसे अर्थ खोले, कि उन उभय उपकारी आचार्योंका ज्ञानप्रवाह जैन समाजमें पुनः संचारित हुआ।
पूज्य बहिनश्री चंपाबेनने ज्ञानवैराग्यमय हृदय द्वारा उसी मार्गको मुमुक्षु हृदयमें सुदृढ़ बनाया है। जिससे मुमुक्षु हृदय अध्यात्म-गंगाका अपने पुरुषार्थ अनुसार लाभ लेते गये। इस भांति मुमुक्षु हृदय अध्यात्मजलसे आर्द्र होने के साथ-साथ जिन आचार्योंसे यह ज्ञान-गंगा मुमुक्षुओंको मिली, ऐसे आचार्यों व मुनि भगवंतोके प्रति हृदय संवेगित भी बना।