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शासनमें यह उत्सव गाँव-गाँवमें श्रुतकी पूजा सह बड़े धाम-धूमसे मनाया जाता है। अध्यात्मतीर्थ सुवर्णपुरीमें भी यह उत्सव बड़े भावपूर्ण भावना व उत्साह सह मनाया जाता है।) वहाँ (अंकलेश्वरमें) आज भी भूतबलि आचार्यकी प्रतिमा बिराजमान है।
__तत्पश्चात् जिनपालित मुनिके साथ आचार्य भूतबलिने पूर्ण रचना आचार्य पुष्पदंतके पास भेज दी; जिसे आचार्यवर पुष्पदंत देखकर बहुत ही प्रसन्न हुए और वहाँ भी चतुर्विध । संघने षट्खण्डागम शास्त्रकी पूजा की व बड़ा उत्सव किया।
___इस तरह षट्खण्डागम शास्त्रके रचयिता आचार्य पुष्पदंत व भूतबलि दिगम्बर शासनकी पट्टावलियोंमें धरसेनाचार्यके पश्चात्, पुष्पदंताचार्यका ३० वर्षका समय दिखाया गया है। उसके पश्चात् भूतबलि आचार्यका काल दिखाया गया है। इस परसे यह प्रतीत होता है, कि पुष्पदंत आचार्य भूतबलि आचार्यसे ज्येष्ठ थे।
यद्यपि जैसा कसायपाहुड़ सिद्धान्त ग्रंथ प्राचीन है, वैसा ही यह षट्खण्डागम सिद्धान्त ग्रंथ भी प्राचीन है। फिर भी दोनोंकी रचना शैलीमें काफी अन्तर है; भगवानकी दिव्यध्वनिमेंसे गणधर भगवंतने जो १२ अंग व १४ पूर्वोकी रचना की, उसमेंसे कसायपाहुडकी रचना पँचमपूर्व-ज्ञानप्रवादपूर्वसे की गई थी; जबकि षट्खण्डागम दूसरे पूर्व-अग्रायणी पूर्वसे की गई है। कसायपाहुडमें जहाँ जीवके परिणाम व मोहनीय कर्म संबंधित ही चर्चा है; वहाँ षट्खंडागम शास्त्रमें जीवके परिणाम व आठों कर्म संबंधित चर्चा है। कसायपाहुड़की टीका ग्रंथका नाम जयधवला टीका है; जब कि षट्खण्डागम शास्त्रकी टीकाका नाम धवला व छठवे खण्डकी टीकाका नाम महाधवला है। कसायपाहुड़ पद्य रचना है; वहाँ षट्खण्डागम गद्य रचना है।
आचार्य पुष्पदंत व भूतबलिके माता-पिता या दीक्षा गुरुका कोई सुस्पष्ट इतिहास ज्ञात नहीं होता है, फिर भी कुछ आधारोंसे विद्वानोंके मतानुसार पुष्पदंत आचार्यकी कर्णाटकमें ही जन्मस्थली रही हो।
विद्वानोंका दोनों आचार्यके समयमें भिन्न-भिन्न मत हैं। फिर भी विशेष तौर पर दोनों आचार्योका समय क्रमशः वी.नि. सं. ५९३-६३३ (ई.स. ६६-१०६) व वी. नि. सं. ५९३-६८३ (ई.स. ६६ से १५६) सुयोग्य प्रतीत होते हैं।
भगवान अर्हद्वलि आचार्यसे आचार्यदेव धरसेनजीकी जो परम्परा चली, वह यहीं पूर्ण हो जाती है।
षट्खंडागम रचयिता आचार्यदेव पुष्पदंत व भूतबलि भगवंतको कोटि कोटि वंदन।
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