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आचार्य अर्हद्बलिके युगप्रतिक्रमणमें सो योजनके मुनिवर
समाचारके आधारसे ही आपने उस सम्मेलनमें आए आचार्य पुष्पदंत व आचार्य भूतबलिको आचार्य धरसेन भगवंतके पास गिरिनगरमें उनके सेवार्थ भेजे थे।
श्रवणबेलगोलाके एक शिलालेखके आधारसे यह पता चलता है, कि आचार्य पुष्पदंत व भूतबलि दोनोंने आचार्य अर्हद्बलिसे ही दीक्षा ग्रहण की थी। अतः आप आचार्य पुष्पदंत व आचार्य भूतबलिके दीक्षागुरु थे ।
आपके काल तक प्रायः लेखित ग्रंथ रचना नहीं होती थी । मौखिक ही अंगादिका ज्ञान प्रदान होता था । ग्रंथ रचनाकी स्थिति आपके पश्चात् प्रायः पुष्पदंत व भूतबलि आचार्यसे ही ज्ञानकी क्षीणताके कारण शुरु हुई। अतः आपने किसी ग्रंथकी रचना नहीं की है। आप अंगज्ञानके एकदेशज्ञाता होने पर भी संघभेद निर्माता होनेके कारण आपका नाम श्रुतधरोंकी परम्परामें नहीं आता है, फिर भी श्रुतावतारमें आपका नाम बड़ी श्रद्धासे लिया गया है ।
विद्वानोंके मतानुसार आपका काल वी. नि. ५६५ - ५९३ (ई.स. ३८-६६ ) माना जाता है । आपके समय की इस अवधिमेंसे प्रथम १० वर्ष मूलसंघके हैं, व पश्चात्के वर्ष मूलसंघ विच्छेद बादके हैं। आचार्यवर अर्हद्बलि भगवंतको कोटि कोटि वंदन ।
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