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भगवान आचार्यदेव श्री आचार्यदेव अर्हद्वलि अपरनाम गुप्तिगुप्त
पूर्वदेशस्थ पुण्ड्रवर्धनके निवासी आचार्यवर अर्हद्वलि बहुत बड़े संघनायक थे। आचार्य इन्द्रनन्दिकृत 'श्रुतावतार' नामक ग्रंथकी गुरुपरम्परामें आचार्यवर लोहार्यका नाम व उनकी परम्परामें अंगज्ञान व पूर्वज्ञानके एकदेशज्ञाता आचार्य विनयदत्त, श्रीदत्त, शिवदत्त व अर्हदत्तके पश्चात् आचार्य अर्हद्धलिका नाम आता है। आपका नामोल्लेख आचार्य गुप्तिगुप्तके रूपमें भी आता है।
आपके संघनायकत्वमें पञ्चवर्षीय युगप्रतिक्रमणके वक्त एक बड़ा भारी यति-सम्मेलन हुआ। इसमें सौ-सौ योजन तकके यति सम्मिलित हुए थे। यह सम्मेलन आन्ध्रदेशके अन्तर्गत 'वेणाक नदीके तीर पर आये 'महिमानगरमें हुआ था।
अंग ज्ञानके विच्छेद होनेके पश्चात् कोई भी आचार्य किसी पूरे अंगके ज्ञाता नहीं रहे। जीवोंके भाग्यवशात् आपके व तद्वर्ती आचार्योंकी परम्परामें कुछ वर्षों तक अंगो या पूर्वोके एकदेश ज्ञाता वर्तते रहे, परन्तु दुषमकालकी स्थितिसे आचार्य अर्हद्वलिको संघ संचालन हेतु विविध संघ करनेकी जरूरत महसूस होने लगी।
__ यतियोंमें कुछ पक्षपातकी गन्ध देखकर आपने गौतम गणधर भगवंतसे चले आ रहे मूलसंघको पृथक्-पृथक् नन्दि, वीर, अपराजित, देव, पञ्चस्तूप, सेन, भद्र, गुणधर, गुप्त, सिंह, चन्द्र आदि विविध नामों युक्त संघोकी स्थापना की थी। जिससे परस्परमें धर्मवात्सल्यभाव वृद्धिगत हो सके।
आचार्य धरसेन जब गिरिनगरकी चन्द्रगुफामें विराजित थे। उस समय उन्होंने इसी यति सम्मेलनमें दो समर्थ मुनिभगवंतको भेजनेके समाचार आचार्यवर अर्हद्वलिको भेजे थे। उस १. वेण्या नामक नदी महाराष्ट्र प्रान्तके सतारा जिलेमें है और इसी जिलेमें महिमानगढ़ नामका एक
गाँव भी विद्यमान है। वह ही महिमानगरी होना चाहिए। इससे अनुमानत: इसी सतारा जिलेमें
मुनियोंका सम्मेलन हुआ था। २. श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव इसी नन्दिसंघके थे।
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