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* स्वप्न १३ : 'कुड़ेमें उत्पन्न कमल'का फल : परिग्रह सहित मुनि होंगे।
(यह भी सामान्यकथन प्रतीत होता है, क्योंकि इस घटनाके पश्चात् भगवान कुंदकुंदाचार्यादि ।।
कई निष्परिग्रही मुनि हुए और पञ्चमकालके अन्त तक होंगे।) . स्वप्न १४ : 'मर्यादा त्याग करता समुद्र'का फल : शासक लोग अधिक कर (टेक्स)
वसूल करेंगे। * स्वप्न १५ : 'बालवृषभ द्वारा उत्तम रथकी धुरा चलाते हुए का फल : कुमार संयमके
भार वहन करेंगे। (इस फलमें क्या कहना चाहते है, वह अस्पष्ट है।) स्वप्न १६ : 'तरूण बैलों पर आरूढ़ अतुल शक्तिशाली क्षत्रिय'का फल : क्षत्रिय कुधर्मके अनुरागी होंगे। इस स्वप्नसे संकेत मिलता है, कि अब काल कुधर्मकी विशेषतावाला आयेगा।
राजाने स्वप्नके ऐसे फल जानकर, इस पञ्चमकालको संसारको अति धर्म विरुद्ध जानकर, संसारसे विरक्त हो, पुत्रको राज्य दे भगवान भद्रबाहु (द्वितीय)से भगवती जिनदीक्षा धारण की व घोर तप किया।
____आप दोनोंके समयमें अध्यात्मविद्याका प्रवाह मौखिक ही था। लिखितरूपमें ग्रंथ - बनानेकी कोई आवश्यकता नहीं थी। अतः आप दोनोंने कोई शास्त्ररचना नहीं की है, फिर भी आप अपने कालमें महान समर्थ मुनि भगवंत होनेसे आपका स्थान जैन इतिहासमें अमिट हैं।
आपके जीवनपटलसे हमें ज्ञात होता है, कि जीवनमें सम्यक्रत्नत्रय धर्म ही ग्रहण करनेयोग्य है।
आचार्य श्री कुंदकुंददेवने आपको अपना ‘गमकगुरु' के रूपमें बताया है। आपका काल ई.स. पू. ३५ से १२के बीच रहा है। आचार्य भद्रबाहु (द्वितीय) व मुनिवर चंद्रगुप्त (द्वितीय)को कोटि कोटि वंदना।
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