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रानीयोंके सभी प्रयास निष्फल किये जिससे रानीयाँ भी स्वयं ज्ञान-वैराग्यवंत बनती गई।
योगानुयोग उसी रात्रिको अर्हदास श्रेष्ठीके घरसे धन चुराने हेतु, चोरी विद्यामें कुशल राजपुत्र-विद्युतप्रभ नामा चोर, उनके घर आया। उसने अदृश्य विद्यासे घरके दरवाजे खोल
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रात्रिमें जम्बूस्वामीके साथ उनकी चार रानियाँ व विद्युतप्रभ चोरका वार्तालाप कर घरमें प्रवेश किया। “सुबह होते ही 'स्वामी', दीक्षा लेने वाले हैं" यह व्यथा माताको अन्दरोन्दर खाये जा रही थी। अतः वे ठीक तरह सो नहीं पा रही थी।
विद्युत्प्रभ चोरने माताकी यह व्यथा देख उसे अपना परिचय दिया। माताने अपनी सारी व्यथा कही। आज ही पाणिग्रहण की हुई चार कन्याएँ 'स्वामी'को सब भांति मना रही हैं, पर स्वामी उनकी सब बातोंको वैराग्य व शांतरसमें मग्न कर रानियों पर वैराग्यका रंग चढ़ा रहे हैं। अतः माताने विद्युत्प्रभ चोरसे कहा, कि 'आप बुद्धिशाली चोर होनेसे, किसीका मन चुरानेमें भी आप प्रवीण प्रतीत होते हैं। यदि आप 'स्वामी'को कुछ समझायें व इस भरे घरको चार चांद लगायें तो कितना सुन्दर हो। आपको जो धन चाहिए वह सभी ले लीजिए। धनभंडारकी चाबीयाँ तुम्हें देती हूँ। सभी धन तुम्हारा है। पुत्र बिनाके धनको धिक्कार है। पुत्र बिना इस धनका मैं क्या करूँगी' ?
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