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भगवान महावीर पश्चात ६८३ वर्ष तककी परम्परा
भगवान महावीरस्वामीके निर्वाणकाल पश्चात् ३ वर्ष ८ महिने और १५ दिन तक चतुर्थकाल रहा। तत्पश्चात् वर्तमान पञ्चमकाल शुरू हुआ। तबहीसे दिगम्बर आचार्योंकी परंपरा गिनी जाती है। अर्थात् उसमें चतुर्थकालका उक्तकाल भी आ जाता है। उसे ही वीर निर्वाण संवत कहते हैं।
इस भांति यहाँसे भगवान महावीर पश्चात् कुन्दकुन्दाचार्यदेव तककी आचार्य परम्परा दिखाई जा रही है। तत्पश्चात् अन्य आचार्योंका जीवनचरित्र बताते समय उनका काल ही दिखाया जाएगा, क्योंकि कुन्दकुन्दाचार्यदेव पश्चात् ऐसी कोई स्पष्ट परम्परा जैन इतिहासमें नहीं मिलती है। इतिहासकारोंके अनुसार अंग-अंशका ज्ञान वी.नि. पश्चात् ६८३ वर्ष तक रहा। अतः यहाँ वी.नि. सं. ६८३ तककी परम्परा दिखाई है।
(१) तिलोयपण्णत्ति, (२) इन्द्रनन्दि श्रुतावतार, (३) श्रीधर कृत श्रुतावतार, (४) धवला टीका, (५) हरिवंशपुराण आदिमें आई मूलसंघके आचार्योंकी पट्टावलीयोंको ध्यानमें रखकर व लौकिक इतिहासकारोंनुसार जिस-तिस समयमें हुए राजाओंके समयके साथ मिलान करके यह पट्टावली विद्वानोंने तैयार की है।
(१) महावीर भगवानके पश्चात् आचार्यदेव अर्हबली तककी परम्परा मूलसंघ कही जाती है।
___ (२) आचार्यवर अर्हद्धलिके पश्चात् 'मूलसंघ'को विच्छेद कर 'नन्दि' आदि नये संघ शुरू हुए। उसमें आचार्य अर्हद्धलिके आचार्यकालका १० वर्ष तो मूलसंघमें रहा बाकीका १८ वर्ष नये संघमें रहा।
(३) वी.नि. पश्चात् ६८३ वर्ष तक अंग-अंशधारियोंकी परम्परा चलती रही तत्पश्चात् अस्त हो गई।
(४) आचार्य माघनन्दि प्रथम चार वर्ष नन्दिसंघके पट्ट पर रहे। तत्पश्चात् पदभ्रष्ट हो जानेसे पुनः नवीन दीक्षा धारणकर समाधिमरण तक ३५ वर्ष तक विद्यमान रहे।
(५) (आचार्य भूतबली व आचार्य यतिवृषभसे आगे उनकी परम्परा नहीं चलती है । मात्र भगवान कुंदकुंदाचार्यदेवकी ही परम्परा चलती है व उनके पश्चात् बहुधा सभी आचार्य स्वयंको उनकी परम्परामें रहनेमें ही अपना भाग्य समझते हैं।)
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