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जब इन्द्रभूतिको 'द्रव्यषटकं' 'नवपद सहितं' 'लेश्या' आदि शब्दोंका अर्थ प्रतिभासित नहीं हुआ, तब वह चिढ़कर बोला-'तुझसे क्या शास्त्रार्थ करूँ ? तेरे गुरुसे ही शास्त्रार्थ करूँगा। वह पाँचसौ शिष्योंके साथ भगवान महावीरके पास जानेको उद्यत हो गया। इन्द्र भी आगे चलकर उन्हें मार्ग बतलाने लगा। ज्योंही इन्द्रभूति समवशरणके पास आया और उसकी दृष्टि मानस्तंभ पर पडी, त्योंही उसका अभिमान चूर हो गया। वह समवसरणके भीतर गया। वहाँ भगवानकी दिव्य विभूति देखकर उसने अपने-आपको बहुत ही क्षुद्र अनुभव किया। समवसरणके वैभवसे गद्गद् होकर इन्द्रभूतिने कहा 'भगवान ! मुझे भी अपने चरणों में स्थान दीजिये।' ऐसा कहकर उसने अन्तरंग आत्म-पवित्रता प्राप्त कर वहीं जिन-दीक्षा धारण कर ली। उसके बाद पाँच सौ शिष्योंने भी जैन-धर्म स्वीकार कर यथाशक्ति व्रत विधान ग्रहण किये।
भगवान महावीरका विहार, बिहार प्रान्तमें अधिक हुआ है। राजगृहके विपुलाचल पर्वत पर कई बार उनके आनेके कथानक मिलते हैं। इस तरह समस्त भारतवर्षमें जिन-धर्मकी आत्मकल्याणी वाणी बरसाते-बरसाते जब उनकी आयु बहुत थोड़ी रह गई, तब वे पावापुर आये और वहाँ योग-निरोध कर आत्म-ध्यानमें लीन हो विराजमान हो गये। वहीं पर उन्होंने सूक्ष्म-क्रिया प्रतिपाति और व्युपरत क्रिया निवृत्ति नामक शुक्लध्यानके द्वारा समस्त अघातिया कर्मोंका नाश कर कार्तिक कृष्णा अमावस्याके दिन प्रातःकालके समय करीब बहत्तर वर्षकी अवस्थामें मोक्षश्रीको प्राप्त किया। देवोंने आकर निर्वाणक्षेत्रकी पूजा की और उनके गुणोंकी स्तुति की। भगवान महावीर जब मोक्ष गये थे, तब चतुर्थकालके ३ वर्ष ८ माह १५ दिन बाकी रह गये थे। उनकी आयु ७१ वर्ष ३ माह २५ दिनकी मानी है, उसका विभाग इस तरह है :गर्भकाल
९ मास ८ दिन, कुमारकाल २८ वर्ष ७ मास १२ दिन, छद्मस्थकाल १२ वर्ष ५ मास १५ दिन, केवलीकाल २९ वर्ष ५ मास २० दिन
७१ वर्ष ३ माह २५ दिन हुए। मुक्त होने पर चतुर्थकालके बाकी रहे ३ वर्ष ८ माह १५ दिन।
महावीरस्वामी नयनपथगामी भवतु मे(नः)।
कुल
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