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भगवान महावीरस्वामी पश्चात् २५वीं शताब्दीमें जिनधर्म
भगवान श्री महावीरस्वामीके निर्वाण पश्चात् करीब ६८३ वर्ष तक तो अंग, पूर्व व अंग - पूर्वांशका ज्ञानप्रवाह क्रमशः क्षीण होता हुआ भी अविरतरूपसे चलता रहा। तब तक श्रुत प्रवाहकी मौखिक परम्परा ही थी। तत्पश्चात् ज्ञान विशेष- विशेष क्षीण होता जानेसे ग्रंथ लिखनेकी परम्परा शुरू हुई ।
तत्पश्चात् कई महासमर्थ श्रुतधर आचार्य भगवंत धरसेनाचार्य, पुष्पदंत, भूतबलि, कुंदकुंदस्वामी, समन्तभद्रस्वामी आदिको उस आचार्य परम्परासे मिला जो श्रुतज्ञान, उससे उन्होंने षट्खंडागम, कसायपाहुड, समयसार, प्रवचनसार, नियमसार, पंचास्तिकायसंग्रह, तत्त्वार्थसूत्र, आप्तमीमांसा, समाधितंत्र, इष्टोपदेश आदि विविध ग्रंथोंकी रचना करके उस श्रुतज्ञानको चेतनवंत बनाया। तत्पश्चात् कुछेक सारस्वताचार्य हुए, जिन्होंने श्रुत परम्परामें मिले श्रुतज्ञानको अपने आत्मज्ञान व अंतरंग विशुद्धिके बलसे मौलिक ग्रंथ और टीका ग्रंथोंको लिखकर जिनधर्मको सरल व विशद्रूपसे सुदृढ किया ।
इस भांति भगवान महावीरस्वामी द्वारा प्रवाहित ज्ञान शनैः शनैः क्षीणताकी ओर बहता गया । ऐसा परम्परासे प्रवाहित श्रुतज्ञान करीब २५०० वर्ष तक चला। भगवान महावीरके पश्चात् २५०० वर्षोंमें, उस ज्ञान गंगाने कई उतार-चढ़ाव देखे थे। २५००वीं शताब्दीमें तो भगवान महावीरके शासनका मूलभूत अंग - अध्यात्मज्ञान लुप्तप्रायः हो गया था । उसही अन्तर्गत वी.नि. २४१६ (वि.सं. १९४६, ई. स. १८९० ) में परम कृपालु सद्गुरुदेव श्री कानजीस्वामीका जन्म हुआ। उन्होंने पूर्वमें विदेहक्षेत्रस्थ भगवान सीमंधरस्वामीसे प्राप्त देशना और वर्तमानमें ग्रंथाधिराज समयसारसे निज आत्मसाक्षात्कार किया। इतना ही नहीं, उक्त दिगम्बर परम्परामें हुए सभी आचार्योंके ग्रंथोंका रसास्वादन कर उन्होंने अपनी आत्मपरिणतिको विशेष निर्मल बनाई । पुण्यशाली भव्यजीवोंको उनका पावन, अध्यात्मरस गंभीर, शुद्धात्म दृष्टिप्रधान उपदेश भी मिला । परम कृपालु पूज्य गुरुदेवश्रीको, जबसे समयसार ग्रंथ प्राप्त हुआ, तबसे उन्होंने निरन्तर ५८ वर्ष तक पूर्व आचार्यकृत दिगम्बर ग्रंथोंका रोजाना
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