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गुरु मानते थे। आपकी गुरु परम्परा निम्न प्रकारसे शिलालेखोंके आधारसे मिलती है। मूलसंघ, नन्दिसंघ - बलात्कारगणके सारस्वत गच्छमें
पद्मनंदि (कुन्दकुन्दाचार्य)
उन्हींके अन्वयमें
अमरकीर्ति आचार्य (जिनके शिष्योंके शिक्षक - दीक्षक सिंहनन्दी व्रती थे । )
श्री धर्मभूषण भट्टारक (द्वितीय) (सिंहनन्दी प्रतीके सधर्मा )
वर्द्धमान मुनीश्वर (सिंहनन्दि व्रतीके चरणसेवक )
धर्मभूषण यति (तृतीय) (न्यायदीपिकाकार)
इस तरह श्री धर्मभूषणजीके साक्षात् गुरु श्री वर्द्धमान मुनिश्वर और प्रगुरु द्वितीय धर्मभूषण हो। अमरकीर्ति दादागुरु और प्रथम धर्मभूषण परदादागुरु थे।
आपको अपने गुरुके प्रति अनन्य समर्पणता व स्नेहसह - चरणोंपासकत्वमें बने रहने की तमन्ना थी। आप स्वयम् इस भांति लिखते हैं, कि यह 'न्यायदीपिका' पूज्य गुरु वर्द्धमान मुनीश्वरकी कृपाका फल है ।
आप बहुश्रुताभ्यासी थे, यह आपकी कृतिसे झलकता है। आप स्वयम् न्यायशास्त्रके प्रखर विद्वत्तायुक्त ज्ञाता थे। आपको अन्यमतोंका भी गहन अभ्यास था ।
आपकी एकमात्र रचना 'न्यायदीपिका' है; जिसमें प्रमाण प्रमाणाभासों, हेतु व हेत्वाभासों आदिका सुन्दर विवेचन है । उसमें 'प्रमाणकी प्रामाण्यता' भी अच्छी तरह समझाई है। उसी भांति लक्षण व लक्षणाभासोंका भी सुन्दर विवेचन किया है। आपने अपनी प्रमाणकी परिभाषा रचनेमें श्री अकलंक आचार्य अनुसार गये हों, ऐसा प्रतीत होता है ।
आपका समय ई.स. १३५८-१४१८ माना जाता है।
'न्यायदीपिका' के रचयिता आचार्य अभिनव धर्मभूषण यतिको कोटि कोटि वंदन ।
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