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आचार्यदेवने परीक्षामुख ग्रंथकी संक्षिप्त, किन्तु विशद व्याख्या की है। साथ ही उसमें आपने चार्वाक, बौद्ध, सांख्य, न्याय, वैषेशिक, मीमांसक व वेदान्तादि दर्शनोंके कुछ विशिष्ट सिद्धान्तोंका स्पष्ट विवेचन एवं निराकरण भी किया है।
आपके ग्रंथके टिप्पणकारने इस ग्रंथको 'प्रमेयरत्नमाला' बताया है, यह नाम पूर्णतः सार्थक है, क्योंकि यह विविध साहजिक प्रमेयोरूपी रत्नोंकी कभी नहीं छूटनेवाली माला है। इस ग्रंथके प्रारंभमें आपने स्वयं इस टीकाका नाम 'परीक्षामुख- पञ्जिका' निर्देश दिया है व स्वयं ही प्रत्येक समुद्देशके अन्तकी 'पुष्पिका वाक्य' में 'परीक्षामुख लघुवृत्ति' बताया है । जो भी हो, परन्तु आजकल यह 'प्रमेयरत्नमाला' के नामसे प्रसिद्ध ग्रंथ है।
यह ग्रन्थ न्यायशास्त्रके जिज्ञासुओंको सर्वदा न्यायशास्त्रका बोध कराता रहेगा। यह भावना मात्र ही नहीं, परन्तु यह ग्रंथ आजकल जैन न्यायके अध्ययन हेतु विद्यालयों व महाविद्यालयों तकमें पाठ्यपुस्तकके रूपमें आदरणीय व पठनीय हो रहा है।
यह रचना एक व्यक्तिविशेषके निमित्तसे बनाई गई है। आचार्यदेवने स्वयं इस ग्रंथके प्रारम्भमें तथा अन्तमें स्पष्ट उल्लेख किया है, कि 'आपने यह टीका वैजेयके प्रिय पुत्र -हीरपके अनुरोधसे शान्तिषेणके पठनार्थ रची है ।' यद्यपि वैजेयके ग्रामका पता स्पष्ट नहीं है, पर हीरप बदरीपाल वंश या जातिका ओजस्वी सूर्य था, ऐसा निर्देश किया है। उनकी (वैजेयकी) पत्नीका नाम नाणाम्बा था। जो अपने विशिष्ट गुणोंके कारण रेवती, प्रभावती आदि नामोंसे प्रसिद्ध थी। उसके दानवीर हीरप नामक पुत्र हुआ; जो सम्यक्त्वरूप रत्नोंसे सुशोभित था । तदुपरांत वह लोकहित कार्योंको करनेके लिए प्रसिद्ध था । उनके आग्रहसे सम्भवतः उन्हीके पुत्र - शान्तिषेणके पढ़ने हेतु यह लघुवृत्ति बनाई होगी ।
आपका यह एक मात्र 'प्रमेयरत्नमाला' ग्रंथ ही है । इसमें भी परीक्षामुखकी भांति प्रमाण व प्रमाणाभासोंकी विशद चर्चा है।
आपका समय ईसाकी १२वीं शताब्दिका मध्यपाद प्रतीत होता है ।
'प्रमेयरत्नमाला' ग्रंथके रयिचता आचार्यदेव लघु अनन्तवीर्यजीको कोटि कोटि वंदन |
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