________________
भगवान आचार्यदेव
श्री शुभचन्द्रदेव
एक ओर 'परम अध्यात्म तरंगिणी' ग्रंथके रचनाकार, श्री शुभचन्द्राचार्यदेवने आचार्य अमृतचन्द्रसूरिके अध्यात्मग्रंथ समयसारकलशकी टीका रचकर रत्नोंसे मढ़ दिया, तथा दूसरी ओर प्रचुर वैराग्यसे तर-बतर ज्ञानार्णव रचकर अपने भाई भर्तृहरिको ऐसा वैराग्यवंत बना दिया, कि जिससे वे भगवती जिनदीक्षा धारण कर वैदिकधर्मके बाह्य क्रियाकांड छोड़ आत्माके ज्ञान-ध्यानमें जुट गये।
आप किस संघ या गण, गच्छके थे या आपकी गुरु परम्परा क्या थी उसकी कोई भी जानकारी प्राप्त नहीं होती है। शुभचन्द्र तथा भर्तृहरि मालवानरेश अर्थात् उज्जयिनीके राजा सिन्धुराजके पुत्र थे ।
एक प्रसिद्ध कथानुसार महाराजा सिंहको बहुत समय तक सन्तान न हुई, जिससे वह चिन्तित रहने लगा। एक दिन मन्त्रीने राजाकी चिन्ताको अवगत कर उसे धर्माराधन करनेका परामर्श दिया। राजा सावधान होकर धर्मकृत्योंको सम्पन्न करने लगा ।
एक दिन राजा व रानी अपने मन्त्रियोंके साथ वनक्रीड़ाके लिए गये और वहाँ मूञ्जके खेतमें पड़े हुए एक बालकको पाया। उस बालकको देखते ही राजाके हृदयमें प्रेमका संचार हुआ और उसने उसे उठा लिया तथा लाकर रानीको दे दिया। रानी उस पुत्रको गोदमें बिठाकर अत्यधिक प्रसन्न हुई । मन्त्रीने राजासे निवेदन किया, कि नगर में चलकर रानीको गूढगर्भवती घोषित किया जाये और पुत्रोत्सव मनाया जाये । मन्त्रीके परामर्शके अनुसार राजाने पुत्रोत्सव सम्पन्न किया। राजा सिंहने उस पुत्रका नाम मुञ्ज रखा। मुञ्जने वयस्क होकर थोड़े ही दिनोंमें सकल शास्त्र और कलाओंका अध्ययन कर लिया । तदन्तर महाराजने रत्नावती नामक कन्याके साथ उसका विवाह कर दिया ।
कुछ दिनोंके अनन्तर महाराज सिंहकी रानीने गर्भ धारण किया और दसवें महीने में एक पुत्रको जन्म दिया, जिसका नाम सिंहल ( सिन्धुराज ) रखा गया। इस पुत्रका भी जन्मोत्सव सम्पन्न किया गया तथा वयस्क होनेपर मृगावती नामक राजकन्यासे विवाह कर
(186)