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आपके गुरुका नाम रामनन्दी था व शिष्यका नाम नयननन्दि था। आपके पादकमलमें ही, आचार्य प्रभाचन्द्रजीने 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' रचा था-ऐसा इतिहासकारोंका मानना है। शिलालेखमें आपको 'जिनराज', न्यायदीपिकामें आपको 'भगवान' व प्रमेयकमलमार्तण्डमें आपको 'गुरु'विशेषणसे सम्बोधित किया है।
___ आप अपने विषयके इतने मर्मज्ञ थे; कि उस विषयको समझाने में आप अत्यंत पटु प्रतीत होते हैं। जिससे आपने अपना विषय तत्त्वार्थसूत्रकी भांति अत्यंत परिमार्जित संस्कृत सूत्रोंमें किया है। आपने आचार्य अकलंकदेवके ग्रंथरूपी समुद्रका मंथन करके, उसके फलस्वरूप ‘परीक्षामुख'रूप न्यायशास्त्ररूपी अमृत भव्य जीवोंके पुण्य प्रतापसे रचा है।
आपने एक मात्र ‘परीक्षामुख' ग्रंथकी रचना की है। इस ‘परीक्षामुख' ग्रंथमें आपके असाधारण वैदुष्य व न्याय विशेषज्ञताका परिचय होता है। इस ग्रंथमेंसे ऐसा भी प्रतीत होता है, कि आप जिनशासनके ग्रन्थोंके मर्मज्ञ तो थे ही, साथमें आप चार्वाक, बौद्ध, योग (न्याय, वैशेषिक), प्रभाकर, जैमिनीय और मीमांसक आदिके सिद्धान्तोंके भी पूर्ण ज्ञाता थे। अतः कहा जाता है, कि जिस प्रकार रत्नोंमें बहुमूल्य 'माणिक्य' होता है, उसी भांति आपके ‘परीक्षामुख' सूत्र माणिक्य-रत्न-राशिके समान हैं। जैसे नीतिवाक्यमें कहा है, कि 'शैले शैले न माणिक्यम्, मौक्तिकम् न गजे गजे' अनुसार ही आपके परीक्षामुखके बारेमें पाया जाता है।
आपने अपनी रचनाका नाम 'परीक्षामुख' रखा है; वह सार्थक ही है, क्योंकि'विरुद्ध नाना युक्तियोंकी प्रबलता व दुर्बलता अवधारण करनेके लिए प्रवर्तमान विचार, वह परीक्षा है'—इस लक्षणानुसार आपने अपने ग्रंथमें प्रमाण व प्रमाणाभासोंकी सही परीक्षा की है; तथा 'मुख'का अर्थ प्रवेशद्वार है—उसी भांति यह ग्रंथ न्याय जैसे विषयमें प्रवेश करनेके लिए ‘प्रवेशद्वार' समा है—अतः प्रतीत होता है कि आपने इस ग्रंथका संपूर्णतया सार्थक नाम रखा है।
आपके इस ग्रंथकी टीका आचार्य प्रभाचन्द्रजी कृत 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' व आचार्य लघु अनन्तवीर्यजी कृत 'प्रमेयरत्नमाला' प्रमुख है।
आपका समय ई.स. १००३ से १०२८ प्रतीत होता है।
'परीक्षामुख' ग्रंथके रचयिता आचार्य श्री माणिक्यनंदि भगवंतको कोटि कोटि वंदन।
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