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भगवान आचार्यदेव
श्री रविषेणस्वामी आचार्यदेव रविषेणस्वामी अपने ज्ञायक स्वभावकी मस्तीमें मस्त विचरते होने पर भी, आपका महान धर्मात्मा पुराणपुरुष श्री रामचन्द्रजी मुनीन्द्र पर हृदय उमड़ आया। जिससे प्रेरित होकर आपने रामचंद्रजीकी गौरवपूर्ण गाथाको ‘पद्मपुराण में एकतान होकर लेखनीरूपसे आकार दिया। जिसमें आपकी श्री रामचन्द्रजी भगवानके प्रति भक्ति प्रचुरता ही प्रतीत होती है। ऐसे शुद्धोपयोगकी प्रचुरता सह भक्तिकी प्रचुरताके धारक ये आचार्य रविषेणजी थे।
जिनवाणीका लोकप्रिय अंग प्रथमानुयोग अर्थात् कथा-साहित्यके संस्कृत रचयिताके रूपमें सर्वप्रथम रविषेणाचार्य ही हैं, उनसे पहले इतने विस्तृतरूपमें प्रथमानुयोग रचयिता अन्य कोई आचार्य नहीं हुए हैं। ‘पद्मपुराण' रचकर पाठकोंको संसारसे विरक्त कर धर्ममार्गमें ला दे-ऐसे हृदयको छू जानेवाला अनुपमग्रंथ आपने अत्यंत सरल भाषामें रचा होनेसे आप जैन समाजमें अत्यंत प्रिय हैं।
___ आपके पश्चात्वर्ती समर्थ आचार्य जिनसेनस्वामीने भी आपको भक्तिसे स्मरण किया
आचार्य रविषेण किस संघ या गण-गच्छके थे, इसका उल्लेख उनके ग्रन्थ 'पद्मचरित'में उपलब्ध नहीं होता। 'सेन' नामक अन्त शब्द ही इस बातका सूचक प्रतीत होता है, कि आप 'सेनसंघ'के आचार्य थे। ‘पद्मचरित' में निर्दिष्ट गुरु परम्परासे अवगत होता है, कि इन्द्रसेनके शिष्य दिवाकरसेन थे और दिवाकरसेनके शिष्य अर्हत्सेन थे व इन अर्हतसेनके शिष्य लक्ष्मणसेन हुए और लक्ष्मणसेनके शिष्य रविषेण हुए।
आपके जन्मस्थान, बाल्यकाल, किशोर व युवावयके जीवन आदि सम्बन्धित कुछ भी जानकारी नहीं मिल पायी है।
___ आचार्यवर रविषेणजीने पद्मचरितके ४३वे पर्वमें जिन वृक्षोंका वर्णन किया है, वे वृक्ष दक्षिण भारतमें पाये जाते हैं। इस तरह आपका भौगोलिक ज्ञान भी दक्षिण भारतका जितना स्पष्ट और अधिक है, उतना अन्य भारतीय प्रदेशोंका नहीं। अतएव आपका जन्मस्थान दक्षिण
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