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आचार्य ऋषिपुत्र
आचार्य ऋषिपुत्र ज्योतिषके प्रकांड विद्वान होनेसे जैन जगतमें अधिक प्रसिद्धताको प्राप्त नहीं है। तदुपरांत अपनी परिणतिमें वीतराग - विज्ञानताकी प्रचुरताके कारण आपने अपने साहित्यमें कहीं भी अपने वंश आदिका परिचय नहीं दिया है। मात्र अन्यमतके ग्रंथों परसे इतना ही पता चलता है, कि आप ज्योतिष विद्याके दिगम्बर प्रकांड पंडित व विशेषज्ञ आचार्य थे।
आपका एक प्रसिद्ध ग्रंथ 'पाशकेवली' उपलब्ध है, परन्तु आपके वचन जैनेतर ग्रंथ 'वाराहिसंहिता'की भट्टोत्पलि - टीका आदि ग्रंथोंमें उद्धृत होनेसे, उस समयमें आपकी प्रसिद्धिका काफ़ी अनुमान होता है । यहाँ तक की उस टीकामें आपकी गणना ज्योतिषके अन्यमतके प्राचीन विद्वान आचार्य आर्यभट्ट, कणाद, काश्यप, कपिल, गर्ग, पाराशर और बलभद्रके साथ की गई है। इससे आप प्राचीन एवं प्रभावक आचार्य ज्ञात होते हैं। आप ज्योतिष आचार्य गर्गके पुत्र होनेसे ही आपको ऋषिपुत्र कहा जाता हो, ऐसा इतिहासकारोंका अनुमान है। आपका निवासस्थान उज्जैनके आसपास ही होनेका भी इतिहासविदोंका अनुमान है।
निज आत्मस्वभावोत्पन्न रत्नत्रयमय परिणत आपको निमित्तशास्त्र, शकुनशास्त्र तथा ग्रहोंकी स्थिति द्वारा भूत, भविष्यत व वर्तमानकालीन फल, भूशोधन, दिक्शोधन, शल्योद्वार, मेलापक, आयाद्यानयन, गृहोपकरण, गृहप्रवेश, उल्कापात आदि निमित्त तथा अन्य विविध भाँतिके ज्योतिषक संबंधित बातोंका ज्ञान था। आपके ज्योतिषविषयक ग्रन्थोंका प्राचीन भारतमें पर्याप्त प्रचार रहा है, तथा उत्तरकालीन आचार्योंने आपके सिद्धान्तोंको अपने ग्रंथोंमें उद्धृत करके आपके वचनोंकी प्रमाणिकता स्वीकृत की है।
‘त्रिस्कन्धात्मक ज्योतिष' आपकी प्रारम्भिक रचना मानी गई है, वह मात्र सूत्रात्मक रचना है। विभिन्न ग्रंथोंमें उद्धरित आपकी संहिता विषयक रचनाका भी अनुमान लगाया जाता है। इसके अलावा एक 'पाशकेवली' नामक विषयकी दृष्टिसे महत्त्वपूर्ण ग्रंथ भी उपलब्ध होता है।
इतिहासकारोंके मतानुसार आप ईसाकी छटवीं सातवीं शताब्दीके आचार्य माने गये हैं। आचार्यदेव श्री ऋषिपुत्र भगवंतको कोटि कोटि वंदन ।
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