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व्यावृत्ति' आदि तीन लक्षणोंकी क्या आवश्यकता है ? यदि ‘अन्यथा अनुपपत्ति' लक्षण नहीं तो उक्त तीनोंका कोई मतलब ही नहीं रहता। अतः हेतुका लक्षण ‘अन्यथा अनुपपत्ति' लक्षण ही सुव्यवस्थित लक्षण है। इस लक्षणसे बौद्धका ‘पक्षधर्मत्व' आदि विलक्षणका निषेध सहज ही हो जाता है।
पात्रकेसरीने हेतु'के-लक्षणको अवगत कर, निश्चिन्त हो राज्यके अधिकारी पदको छोड़कर मुनि दीक्षा धारण की।
इस कथासे विदित है, कि पात्रकेसरी उच्चकुलीन ब्राह्मण थे। स्वामी समन्तभद्रजीके 'देवागम' स्तोत्र अपरनाम 'आप्तमीमांसा'के भाव सुनकर आपकी श्रद्धा जिनधर्मके प्रति जागृत हुई थी और जिनधर्म धारण कर मुनि हो गये थे। कथाकोषके अनुसार इन्हें अहिच्छत्रका
निवासी कहा गया है। ये द्रमिल-संघके आचार्य थे। इस अभिलेखमें आचार्यदेव ATC समन्तभद्रस्वामीके पश्चात् आचार्य पात्रकेसरीको द्रमिल-संघका प्रधान आचार्य सूचित किया है।
आचार्य पात्रकेसरीके अनन्तर क्रमशः आचार्य वक्रग्रीह, वज्रनन्दि, सुमतिभट्टारक (देव), समयदीपक और अकलङ्क नामके आचार्य हुए हैं।
आपने 'त्रिलक्षणक वर्धन' व 'पात्रकेसरी स्तोत्र' अपरनाम 'जिनेन्द्र गुण स्तुति' दो ग्रंथोंकी रचना की है; ऐसा जाना जाता है। उसमेंसे 'त्रिलक्षणक वर्धन' शास्त्र अप्राप्य है, मात्र उसका नाम प्रसिद्ध है। इस ग्रंथकी मीमांसा बौद्ध विद्वान शान्तरक्षितने अपने तत्त्वसंग्रहमें की है, जिससे ज्ञात होता है कि इस ग्रंथमें आपने बौद्ध द्वारा प्रतिपादित ‘हेतु'का लक्षण पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व व विपक्षव्यावृत्ति—ऐसे विलक्षणका निषेध करते हुए 'अन्यथा अनुपपत्ति' ही 'हेतु'का लक्षण स्थापित किया है।
‘पात्रकेसरी स्तोत्र'में आपने भगवानकी स्तुतिके रूपमें समन्तभद्राचार्यके 'आप्तमीमांसा' व 'युक्त्यानुशासन'की भाँति अनुपम, गंभीर विविध न्यायोंका ही वर्णन कर एक अनुपम न्यायशास्त्र ही जगतके जीवोंको प्रदान किया है।
आपके उक्त दोनों ग्रंथ परसे यह स्पष्ट होता है, कि आपका न्याय विषय पर अपूर्व प्रभुत्व-अधिकार था; इतना ही नहीं 'भूत चैतन्यवाद'के निरसनसे, आपकी सिद्धान्त विषयक ज्ञानमें भी प्रबलता प्रतीत होती है।
आपका समय ईसाकी ६-७वीं शताब्दी माना जाता है। आचार्यदेव श्री पात्रकेसरी भगवंतको कोटि कोटि वंदन।
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