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वरन् प्राचीनकालसे है। उस समय जैन समाजमें ईसुकी ईस्वीसन् प्रचलित नहीं थी, पर अन्य संवत्का ही प्रचलन था। उसमें भी उत्तर भारत, मध्य भारत, दक्षिण भारत आदि प्रदेशवार अलग-अलग संवत्का प्रचलन था। इस तरह दक्षिण भारतमें 'शक संवत्'का ही प्रचलन था। अतः उधरके आचार्योंके बारेमें शक संवत् न लिखकर संक्षिप्तमें 'संवत्' ही लिखा जाता था। उस अनुसार इस पुस्तकमें श्री कुंदकुंदादि दक्षिणस्थ आचार्योंके बारेमें शक संवत् ही लौकिक इतिहासानुसार सुव्यवस्थित बैठती है। जैसे ग्रंथोंमें मिलता है, कि 'भगवान कुंदकुंदाचार्यदेव संवत् ४९में विदेह पधारे थे, तो वह संवत् शक संवत् गिननेसे ही इतिहास सुव्यवस्थित बैठता होनेसे, ऐसा इस पुस्तकमें दर्शाया गया है। वर्तमानमें जैन समाजमें भी ईस्वीसन् ही अधिक प्रचलित होनेसे आचार्योंके आचार्यपदवीका समय इस पुस्तकमें 'इस्वीसन्' में ही दर्शाया गया है।
आचार्योंके कौटुम्बिक जीवन वृत्तांत अक्सर किवदंतीयाँ या पश्चात्वर्ती आचार्योंके ग्रंथोंके आधारसे लिखा गया है।
प्रत्येक आचार्योंकी कुल आयुके बारेमें अक्सर कहीं भी नहीं मिलता, पूर्व आचार्यों व उत्तरवर्ती आचार्योंके ग्रंथोंमें आई उनकी कृतियों द्वारा, मात्र उनका आचार्यपदका काल बिठाया जाता है। जैसे कुन्दकुन्दाचार्यदेवका समय ई.स. १२७ से १७९ (अर्थात् ५२ वर्ष) बताया गया है; वह उनका आचार्यकाल है, न कि उम्र; क्योंकि उनकी उम्र करीब ९६ वर्ष की थी। ऐसा सभी आचार्योंके समयके संबंधमें ध्यान रहे।
___इस पुस्तकमें अलग-अलग गण-गच्छ-संघके आचार्यों में से जिनका जीवन हमें यत् किंचित् मिला उनका ही जीवन चरित्र दिया गया है। अतः ऐसा नहीं समझना चाहिये, कि 'दिगम्बर जिनधर्ममें इतने ही आचार्य हैं', परन्तु हमें जिस आचार्योंके जीवनके बारेमें जानकारी मिली उस अनुसार वह दर्शाया है।
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