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________________ १९८ भिक्च एष्टात तब लोग कहते–'वे अमुक गांव का मार्ग पूछते थे।' फिर स्वामीजी अपनी बुद्धि से विचार कर देखते, अमुक गांव का मार्ग पूछा, पर वे गए अमुक गांव में हैं । तब स्वामीजी कहते-'हम अमुक गांव में चलें।' ___ तब साधु कहते-'उन्होंने तो अमुक गांव का मार्ग पूछा था, ऐसा लोग बतलाते थे। और आप अमुक गांव में क्यों पधार रहे हैं ?' तब स्वामीजी ने कहा---'मैं उनकी चालबाजी को जानता हूं। जिस गांव का मार्ग पूछा, वहां नहीं गए हैं, किंतु जहां हम जाना चाहते हैं, वहीं गए हैं, ऐसा लगता है।' आगे जाकर देखते, तो वे उसी गांव में आगे बैठे मिलते और कभी-कभी गोचरी करते हुए मिलते । साधु उन्हें देखकर आश्चर्य करते। वे कहते-'आपने भारी निर्णय किया।" वे स्थान-स्थान पर लोगों को शंकित बनाते और स्वामीजी पीछे से उनकी शंका को मिटा देते । फिर से श्रावक-श्राविकाओं को निर्मल बना देते । उनकी पहिचान करा देते। इस प्रकार उस महान् पुरुष ने बड़ा उद्यम किया और जिन-मार्ग की बड़ी प्रभावना की। ० वन्दना तो करेंगे ही स्वामीजी चूरू की ओर पधारे, तब चंद्रभाणजी और तिलोकचंदजी ने पहले ही शिवरामदासजी ओर संतोषचंदजी को अपने पक्ष में कर अपने साथ मिला लिया। बाद में स्वामीजी पधारे, तब शिवरामदासजी और सन्तोषचन्दजी स्वामीजी को आते देख 'मत्थएण वंदामि' कहकर खड़े हो गए। तब चंद्रभाणजी ने कहा-'अपना और इनका संघीय-सम्बन्ध एक नहीं है, फिर तुमने इन्हें वंदना क्यों की ?' तब शिवरामदासजी और संतोषचंदजी बोले-'ये अपने गुरु हैं। इन्हें वंदना तो करेंगे ही।' बाद में स्वामीजी ने उन दोनों से बात कर उन्हें समझा लिया। उन्हें चंद्रभाणजी के चरित्र की पहिचान करा दी। स्वामीजी वापस मारवार पधार गए। पीछे से उन्होंने चंद्रभाणजी और तिलोकचंदजी से अपना सम्बंध-विच्छेद कर दिया। उनके चरित्र को पहिचान भी लिया। वे बोले-'इन्हें स्वामीजी जैसे छलना करने वाले बतलाते थे, वे वैसे ही निकले। बाद में शिवरामदासजी और संतोषचंदजी दोनों संघ के अनुकूल रहे। चंद्रभाणजी और तिलोकचंदजी विमुख रहे। फिर भी स्वामीजी ने उनकी परवाह नहीं की । ऐसे थे वे साहसिक पुरुष। वे थे एकांततः न्याय के पक्षधर । १६६. सामजी और रामजी बूंदी निवासी सामजी और रामजी दोनों भाई सरावगी थे और जाति से बंद । वे दोनों एक साथ जन्मे हुए थे। उनकी आकृति और सूरत एक जैसी थी । वे केलवा में स्वामीजी के पास दीक्षा लेने आए। शामजी ने वहां दीक्षा ले ली। यह संवत् १८३८ की बात है। कुछ दिनों बाद नाथद्वारा में बहुत वैराग्य और बड़े उत्सव के साथ खेतसीजी
SR No.032435
Book TitleBhikkhu Drushtant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayacharya, Madhukarmuni
PublisherJain Vishva harati
Publication Year1994
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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