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दष्टांत : १८९-१९०
१९५ .. स्वामीजी का वचन मिल गया स्वामीजी स्वर्गवासी हो गए। सं० १८६१ की घटना है । उदरामजी मारवाड़ में विहार करते हुए "आयंबिल वर्धमान तप" कर रहे थे। उसकी ४१ पंक्तियां सम्पन्न हो गई। उसके बाद एक अठाई (आठ दिन के उपवास) की। इसका पारणा खारचियां गांव (मारवाड़ जंक्शन के पास) में किया। उनके शरीर में कोई आकस्मिक वेदना हो गई। वे भारमलजी स्वामी के पास चेलावास जा रहे थे । किन्तु वे कराड़ी गांव पहुंचते. पहुंचते थक गए । तब तपस्वी भोपजी चेलावास गए और उन्होंने भारमलजी स्वामी को सारे समाचार बताये । तब खेतसीजी स्वामी, हेमजी स्वामी और तपस्वी भोपजी आदि गए और उन्हें कंधे पर बिठा कर चेलावास ले माए । घास का बिछौना कर उस पर - सुला दिया।
साध्वी हीरांजी ने हेमजी स्वामी के पास आकर कहा-"आप लेखन क्या कर रहे हैं ? यह ग्रन्थ की प्रतिलिपि क्या कर रहे हैं ? तपस्वी उदरामजी को पानी पिलाएं।" तब खेतसीजी स्वामी और हेमजी स्वामी दोनों माए । खेतसीजी स्वामी ने उदेरामजी को पीछे से हाथों का सहारा दे बिठाया। इतने में उनकी मांखें खिंच गई। भारमलजी स्वामी ने कहा-“यदि तुम भीतर से जागृत हो और स्वीकारते हो तो तुम्हें चारों आहार का त्याग है।" वे खेतसीजी स्वामी के हाथों में ही चल बसे । तब खेतसीजी स्वामी ने कहा--"मुझे स्वामीजी ने कहा था-उदैरामजी की मौत तुम्हारे हाथों होगी। सो उनकी मौत मेरे हाथों में ही हुई। स्वामीजी का वचन मिल
गया।"
१८६. यह रीत पुरानी है सोजत के बाजार में एक छतरी थी, वहां स्वामीजी ठहरे। बरजूजी, नाथांजी आदि ७ साध्वियां किसी दूसरे गांव से वहां आई। स्वामीजी को वंदना कर उन्होंने कहा-ठहरने के लिए स्थान चाहिए।
तब स्वामीजी स्वयं उठे । पास में ही एक उपाश्रय था, उसका दरवाजा बन्द था, साध्वियों को साथ ले वहां आए और बोले-“यहां कोई भाई है, इस उपाश्रय में रहने की स्वीकृति देने वाला ?
तब एक भाई बोला-"मेरी स्वीकृति है।" उसने दूसरे स्थान से कुञ्ची ला, ताला खोल, किंवाड़ खोल दिए। उस उपाश्रय में साध्वियों को ठहरा कर स्वामीजी अपने स्थान में बा गए।
यह घटना नाथांजी के मुख से सुनी, वैसे ही लिखी है। 'साध्वियों को किंवाड़ खोल कर नहीं ठहरना चाहिग'-ऐसी प्ररूपणा करने वाले अनजान हैं। साध्वियां किंवाड़ खुलवा कर रह सकती हैं, यह रीत ठेट स्वामीजी से चली आ रही है।
१६०. तुम्हारी स्वीकृति की जरूरत नहीं खेरवा वासी भगजी दीक्षा के लिए तैयार हुए। तब उनके चचेरे भाइयों ने बहुत विग्रह खड़ा कर दिया। वे ऐसा कहने लगे, "इस दीक्षा में हमारी स्वीकृति नहीं है।"
तब स्वामीजी ने कहा-"तुम्हारी स्वीकृति की जरूरत भी नहीं है।"