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दृष्टांत : ५-७
कुछ निदाई के और कुछ बीज के । कुल दस रुपये लगे ।"
स्वामीजी ने पूछा - " वापस कितने आए ?"
तब गुलजी ने कहा - " स्वामीनाथ ! लगभग दस रुपयों का माल वापस आया-कुछ रुपयों के मूंग, कुछ चारा, कुछ बाजरी, सब दश रुपयों का माल वापस आया । जितना लगा, उतना आ गया । बेचारी खेती का कोई दोष नहीं ।" .
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तब स्वामीजी बोले - "गुला ! ये दश रुपये कोठे के आले में पड़े रहते तो तुझे इतना पाप तो नहीं लगता । ऐसा आरम्भ क्यों किया ? "
५. प्रसन्नता या अप्रसन्नता
देसूरी का नाथो नाम का साधू । उसने स्त्री, मां और पुत्री को छोड़ दीक्षा ली, पर उसकी प्रकृति कठोर । वह अच्छी तरह आज्ञा में नहीं चलता । वह लगभग तीन वर्ष गण में रहा, फिर उससे अलग हो गया। वह जिनके पास था, उन साधुओं ने स्वामीजी से कहा--"नाथ गण से अलग हो गया ।"
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तब स्वामीजी बोले – “किसी के फोड़ा बहुत दर्द करता था और वह फूट गया; तो वह राजी है या नाराज ? "
"ऐसे ही दुःखदायी के अलग हो जाने पर अप्रसन्नता नहीं होती ।"
६. राग-द्वेष
राग-द्वेष की पहचान करने के लिए स्वामीजी ने दृष्टांत दिया कोई बच्चे के सिर पर मारता है, तब लोग उसे उलाहना देते हैं 'भले आदमी ! बच्चे के सिर पर क्यों मारता है ?' और किसी ने बच्चे के हाथ में लड्डू दिया, मूली दी, उसे कोई नहीं बरजता ।" इस राग को पहिचानना कठिन है और उस द्वेष को पहिचानना सरल है । इसीलिए शास्त्रकार ने वीतराग' कहा, वीतद्वेष' नहीं । राग बाद में मिटता है और द्वेष पहले ही मिट जाता है ।
७. सिरोही राव का 'पालका'
सं० १८५२ के लगभग आचार्य जयमलजी के संप्रदाय से पेमजी, रतनजी आदि सोलह साधु अलग हो गए। स्थानक, से पानी लेने आदि कुछ बातों का परित्याग कर उन्होंने नया पर 'पुण्य' के विषय में श्रद्धा तो वही थी । तब लोग कहने से अलग हुए, वैसे ही ये भी अलग हुए।"
तब स्वामीजी बोले - "उन्होंने सिरोही के रावजी का "पालका" बनाया है । सिरोही- राव के सामन्तों और कामदारों ने विचार किया कि उदयपुर, जयपुर और जोधपुर नरेशों के पास पालकी है। अपने भी पालकी बनाएं। ऐसा सोच, बांस के डंडों को बांध, उस पर छाया करने के लिए ऊपर लाल वस्त्र डाल " पालका" बनाया | पालकी का बांस तो मुड़ा हुआ होने के कारण टेढ़ा होता है, इस बात को वे समझ नहीं पाए और उन्होंने जो 'पालका' बनाया, उसमें सीधे बांस डाल दिये । इसलिए वह भद्दा पालका बन गया। वैसे पालके में राव को बिठा हवा खाने के लिए निकले । उसके साथ आगे और पीछे अनेक लोग गांव बाहर तक आए। उस समय खेत के पास
गुमानजी, दुर्गादासजी, नित्य - पिंड, कलाल के घर साधुपन स्वीकार किया, लगे- "जैसे भीखणजी संघ