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वरंगचरिउ X. धार्मिक-विवेचन
'वरंगचरिउ' एक चरितकाव्य है। इस काव्य-ग्रन्थ में कवि ने प्रसंगवश संक्षिप्त रूप में धार्मिक एवं दार्शनिक-विवेचन प्रस्तुत किये हैं। स्वभावतः जो भी प्रासंगिक रहा, उसका संक्षिप्त परन्तु प्रामाणिक विवेचन किया है। इसलिए कथा-प्रवाह बोझल नहीं हो पाया है। दार्शनिक सूत्र उतने ही प्रस्तुत किये गये हैं, जो कथा संचालन में सहयोगी बन सके।
धर्म भारतीय संस्कृति का प्राण है। मानव हृदय उदार और विशाल धर्म से ही बनता है। अतः कवि का धार्मिक होना अत्यन्त वांछनीय है। श्रेष्ठ काव्य भी उसे ही माना जाता है, जिसमें धर्म का प्ररूपण होता है। इस सम्बन्ध में भगवज्जिनसेनाचार्यजी ने स्पष्ट कहा है कि कविता वही प्रशंसनीय समझी जाती है, जो धर्मशास्त्र से सम्बन्ध रखती है। शेष कविताएँ तो मनोहर होने पर भी मात्र पापाश्रय के लिए ही होती हैं। कितने ही मिथ्यावृष्टि कानों को प्रिय लगने वाले, मनोहर काव्यों की रचना करते हैं, परन्तु उनके वे काव्य पापानुबन्धी होने से धर्मशास्त्र के निरूपक न होने के कारण सज्जनों को संतुष्ट नहीं कर पाते। अतः बुद्धिमानों को शास्त्र और अर्थ का अच्छी तरह अभ्यास कर तथा महाकवियों की उपासना करके ऐसे काव्य की रचना करनी चाहिए, जो धर्मोपदेश सहित हो, प्रशंसनीय और यश को बढ़ाने वाली हो।' धर्म का स्वरूप
धार्मिक आचार्यों के समक्ष प्राथमिक समस्या रही है कि धर्म की परिभाषा क्या हो? वह परिभाषा ऐसी होनी चाहिए जो सार्वभौमिकता एवं यथावश्यक गुणों से ओत-प्रोत हो। साधारणतः धर्म के साथ कई भावनाएँ, रीति-रिवाज तथा क्रियाकाण्ड जुड़े रहते हैं, पर उन्हें धर्म नहीं कहा जा सकता। धर्म तो वस्तुतः आन्तरिक विशुद्धि भावना से सम्बद्ध है, जिसमें वैयक्तिकता और सार्वभौमिकता क्षीर-जलवत् घुली रहती हैं। विश्वास (श्रद्धा) धर्म का प्राण है, पर उसे सम्यग्ज्ञान, भावना और आचरण (चरित्र) पर आधारित होना चाहिए। इसलिए धर्म भावनात्मक, ज्ञानात्मक और क्रियात्मक-इन तीनों तत्त्वों का समन्वित रूप होना चाहिए।
__ जैनाचार्यों द्वारा निर्धारित धर्म की परिभाषाओं का यदि विश्लेषण किया जाए तो उन्हें हम तीन वर्गों में विभाजित कर सकते हैं-आध्यात्मिक, सामाजिक और आध्यात्मिक-सामाजिक।
___प्रथम आध्यात्मिक परिभाषा के अनुसार वैयक्तिक विशुद्धि पर अधिक जोर दिया जाता है, जिसमें रागादि भाव से निवृत्ति हो, मिथ्यात्व से मुक्त हो और मोहक्षय के फलस्वरूप आत्मा के स्वाभाविक परिणामों की अभिव्यक्ति हो। 1. आदि पुराण-जिनसेनाचार्यकृत, सम्पा. एवं अनुवादक-पन्नालाल जैन, भारतीय ज्ञानपीठ, 1988, तृतीय संस्करण,
आदिपुराण-1/62-64