________________
लगे । सार्थ पर डाकुओं का हमला हुआ, जिसमें वणिक् की सेना परास्त होने लगी और पलायनोन्मुख हुई तो वरांग कुमार ने अपने कौशल से डाकुओं से युद्ध कर उन्हें परास्त किया । जिस कारण उनकी प्रतिष्ठा सार्थ में महत्त्वपूर्ण हुई । वणिपति उन्हें पुत्रवत् मानने लगा और वरांग कुमार उसके गृहनगर में आ गये, जहाँ उनका खूब स्वागत हुआ और सारी सुख सुविधायें उपलब्ध हुईं। राजा तक भी उनकी कीर्ति फैली तथा राज्य पर आक्रमण होने पर वरांग कुमार ने अपनी भूमिका का निर्वाह किया और यशस्वी हुए । अपने आश्रयदाता राज्य की रक्षा उन्होंने अपने युक्ति बल एवं युद्ध कौशल से की। जब राजा धर्मसेन, जो उनके पिता ही थे, के राज्य पर बकुलाधिपति ने आक्रमण किया, तब वरांग कुमार राजा देवसेन के कहने पर गये और शत्रु राजा को परास्त करने में सफल हुए । पिता यह जानकर अत्यंत हर्षित हुए कि वरांग कुमार जीवित हैं। वे उसे ससम्मान अपने साथ ले गये और राजा बनाना चाहा, किन्तु वरांग कुमार ने अपने भ्राता सुषेण को ही राजा बनाने की बात कही। वे किसी प्रलोभन में नहीं आये और न ही किसी प्रपंच में पड़ना उन्हें इष्ट हुआ। कुछ समय तक वे 'जल में ही जल से भिन्न कमल की तरह ' रहे और संसार विरक्त होकर मुनि वरदत्तसूरि से दीक्षा लेकर मुनिचर्या में लीन हो गये। आयु समाप्त होने पर समाधिमरण से सर्वार्थसिद्धि विमान में पैदा हुए। सर्वार्थसिद्धि की आयु पूर्ण कर मनुष्य भव धारण कर मुक्त हो जायेंगे ।
यह कथ्य वरांग कुमार की जीवन चर्या के उस उज्ज्वल पक्ष को उजागर करता हैं, जहाँ धर्म की प्रतिष्ठा है, धर्म ही सांसारिक प्रपंचों से जीव को उबारने में परम हितैषी है, सहयोगी है। उसके बिना कोई भी मुक्त नहीं हो सकता है यह सिद्ध हो जाता है ।
तेजपाल के वरंगचरिउ में धार्मिक परिवेश गौरवान्वित हुआ है । भाषा का प्रवाह, सौंदर्य सारल्य आदि तो प्रशंसनीय हैं ही, विषय-वस्तु का निर्वाह भी सार्थक - सटीक एवं सफल माना जा सकता है। यह काव्य धर्म की गरिमा से सामाजिक चेतना को सही दिशा देता है। सामाजिक मूल्यों की रक्षा कैसे करें - इसकी प्रेरणा पाठक यहाँ से पा सकेंगे - ऐसा मेरा विश्वास है ।
पंद्रहवीं शताब्दी में पंडित तेजपाल द्वारा रचित वरंग चरिउ पांडुलिपि का उद्धार डॉ. सुमत कुमार जैन ने सम्यक् सम्पादन एवं अनुवाद के साथ किया है। उसके लिए वे साधुवाद के पात्र हैं। इस कार्य के निष्पादन से उन्हें पी-एच. डी. की उपाधि तो मिल ही गई है। उनकी लेखनी एवं प्रतिभा पांडुलिपि संपादन के क्षेत्र में वृद्धिंगत होती रहे. यह शुभकामना है।
प्रोफेसर श्रीयांश कुमार सिंघई
-
अध्यक्ष, जैनदर्शन विभाग
राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान (मानित विश्वविद्यालय) जयपुर परिसर, जयपुर