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वरंगचरिउ वृद्धावस्था का अनुचित लाभ उठाकर वकुलाधिपति कंतपुर पर आक्रमण कर देता है। धर्मसेन ललितपुर के राजा से सहायता मांगता है। वरांग इस अवसर पर कंतपुर जाता है और वकुलाधिपति को पराजित कर देता है। पिता-पुत्र का मिलन होता है और प्रजा वरांग का स्वागत करती है। वह विरोधियों को क्षमा कर राज्य शासन प्राप्त करता है और पिता की अनुमति से दिग्विजय करने जाता है और अपना नया राज्य सरस्वती नदी के किनारे आन्तपुर को बसाता है। जिनधर्म की प्रभावना करते हुए प्रज्ञा के ज्ञान और सुख को वर्धित करता हैं। वरांग ने आनतपुर में एक चैत्यालय का निर्माण कराया और विधिपूर्वक उसकी प्रतिष्ठा सम्पन्न कराई। अनुपमा महारानी की कुक्षि से पुत्र का जन्म होता है और उसका नाम सुगात्र रखा जाता है। एक दिन ब्रह्ममुहूर्त में राजा वरांग तेल समाप्त होते हुए दीपक को देखकर देह-भोगों से विरक्त हो जाता है और दीक्षा लेने का विचार करता है। परिवार के व्यक्तियों ने उसे दीक्षा लेने से रोकने का प्रयत्न किया, किन्तु वह न माना और वरदत्त मुनिराज के निकट दिगम्बर-दीक्षा धारण की।
और तपश्चरण द्वारा आत्म-साधना करता हुआ अन्त में तपश्चरण से सर्वार्थसिद्धि को प्राप्त किया। उसकी स्त्रियों ने भी दीक्षा ले ली। उन्होंने भी अपनी शक्ति अनुसार तपादि का अनुष्ठान किया और यथायोग्य गति प्राप्त की। वरांगचरित की कथा का मूलस्रोत
जैन कथाओं की यह विशेषता या प्रवृत्ति रही है कि इसमें आदर्श के रूप में तीर्थंकर आदि त्रेसठ शलाका पुरुषों एवं ख्यात व्यक्ति के माध्यम से विशिष्ट शैली का प्रतिपादन किया जाता है। वह शैली यह है कि चरितनायक को संकुचित परिवेश से निकालकर एवं उसकी नाना प्रकार की परीक्षा की कसौटी पर कसकर, अंत में श्रेष्ठता साबित करते हैं। डॉ. हीरालाल जैन के अनुसार "चरितनायक को उसके संकुचित परिवेश से निकालकर और उसकी नाना कठिन परिस्थितियों में परीक्षा कराकर उसके असाधारण गुणों को प्रकट करने का अच्छा अवसर प्राप्त होता है। यहां नायक के अपने निवास स्थान से निर्वासित किये जाने के हेतुओं, उसके सम्मुख आने वाली नाना कठिनाइयों, उनसे निपटने के नैपुण्य की कल्पना में तथा इन सभी के वर्णन में सरसता और सौन्दर्य लाने के कौशल में कवि को अपनी मौलिकता दिखाने का अच्छा अवसर प्राप्त होता है। इसी बीच नगरों, पर्वतों, वनों एवं पुरुष-नारियों के वर्णन की चतुराई तथा युद्ध व प्रेम के प्रसंगों पर पुरुष व नारियों के भाव वैचित्र्य का चित्रण करने का कवि को पर्याप्त अवकाश मिलता है।'
वरंगचरिउ नामक अपभ्रंश चरित काव्य में भी उक्त प्रकार की सभी परिस्थितियां पायी जाती 1. णायकुमार चरिउ, पुष्पदंत कृत, सम्पादक-हीरालाल जैन, ज्ञानपीठ प्रकाश, नई दिल्ली, प्रतावना, पृ. 20